Book Title: Anekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 183
________________ अनर्थदण्डव्रत की प्रासंगिकता - डॉ० सुरेशचन्द जैन जैनाचार के परिपालक व्रती के दो भेद हैं-अगारी और अनगारी। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का एकदेश पालन करने वाले अणुव्रती श्रावक को अगारी या गृहस्थ तथा पूर्ण रूप से पालन करने वाले महाव्रती साधु को अनगारी कहा जाता है। सामान्यत: अगार का अर्थ घर होता है परन्तु जैनाचार में यह परिग्रह का उपलक्षण है। फलत परिग्रह का पूरी तरह से त्याग न करने वाले को अगारी कहते हैं। अगारी का अर्थ हुआ गृहस्थ। परिग्रह का पूर्णतया त्याग करने वाला अनगारी कहलाता है। अनगारी का अर्थ है गृहत्यागी साधु या मुनि । यद्यपि अगारी के परिपूर्ण व्रत नहीं होते है, तथापि वह सामान्य गृहस्थो की अपेक्षा व्रतो का एकदेश पालन करता है, अत: उसे भी व्रती-श्रावक कहा गया है। वह यद्यपि जीवनपर्यन्त के लिए त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर पाता है, परन्तु संकल्पी त्रस हिंसा का त्याग कर यथासभव स्थावर जीवों की हिंसा से भी बचता है। भय, आशा, स्नेह या लोभ के कारण ऐसा असत्य संभाषण नहीं करता है, जो गृहविनाश या ग्रामविनाश आदि का कारण बन सकता हो। यह अदत्त परद्रव्य को ग्रहण नहीं करता है, स्वस्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को यथायोग्य जननी, भगिनी या पुत्री के समान समझता है तथा आवश्यकतानुसार धन्य-धान्यादि का परिमाण कर संग्रहवृत्ति को नहीं अपनाता है। अणुव्रती श्रावक के पांचो अणुव्रतों के परिपालन में गुणकारी दिव्रत. देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत इन तीन गुणव्रतों की व्यवस्था है। अपनी

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