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53/3 अनेकान्त/61 पर्याय को धारण करता है, किन्तु उसके परिवर्तन में जो साधारण कारण है, वह काल है। इसके वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व-ये कार्य हैं। जैन-परम्परा में इन्हीं छह द्रव्यों का समूह लोक या सृष्टि कहलाता है।
यह लोक तीन भागों में विभक्त है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। मध्यलोक के ठीक बीच में एक लाख चालीस योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। वर्तमान में जहाँ हम निवास कर रहे हैं, वह मध्यलोक है। इस मध्यलोक से सात राष्ट्र ऊपर और सात राष्ट्र नीचे-इस प्रकार कुल चौदह राष्ट्र, ऊँचा यह लोक है। इसके ठीक मध्य में एक राष्ट्र लम्बी चौड़ी और कुछ कम तेरह राष्ट्र ऊँची त्रसनाली है। सामान्यतया इस त्रसनाली में ही जीव पाये जाते हैं, अतः यह त्रसनाली कहलाती है।
दोनों पैर फैलाकर कमर पर हाथ रखे हुये सिर-विहीन पुरुष के समान इस लोक का आकार है।
जैन परम्परा के अनुसार मध्यलोक थाली के आकार की तरह गोल है। जैसा कि पूर्व में बतलाया है कि इसके ठीक मध्य में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु पर्वत के चारों ओर गोलाकार एक लाख योजन लम्बा और चौड़ा जम्बूद्वीप है। पुनः उसके चारों ओर लवणोदधि (लवण समुद्र) है। इस प्रकार क्रमशः चूड़ी के आकार वाले असंख्यात द्वीप और समुद्र दुगने-दुगने विस्तार वाले हैं अर्थात् जम्बूद्वीप से दुगुना लवणोदधि, पुनः उससे दुगुना धातकीखण्ड, पुनः उससे दुगुना कालोदधि, तदनन्तर उससे दुगुना पुष्करवर द्वीप है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और आधे पुष्करवरद्वीप और उनके मध्य आने वाले लवणोदधि और कालोदधि में ही सामान्यतया मनुष्यों का निवास है, अतः उक्त दो समुद्रों सहित ढाई द्वीप वाले क्षेत्र को मनुष्यलोक भी कहते हैं।
तृतीय पुष्करवर द्वीप के पश्चात् पुष्करवर समुद्र, पुनः चौथा वारूणीवर द्वीप और उसके बाद वारूणीवर समुद्र, इसी प्रकार क्रमशः पाँचवाँ क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र, छठा घृतवर द्वीप-घृतवर समुद्र, सातवाँ इक्षुवर द्वीप-इक्षुवर समुद्र, आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप-नन्दीश्वर समुद्र, नौवाँ अरुणवर द्वीप-अरूणवर समुद्र और दसवाँ कुण्डलवर द्वीप-कुण्डलवर समुद्र है। इस प्रकार एक दूसरे को घेरे हुये क्रमशः असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। तेरहवाँ रुचकवर द्वीप और रूचकवर समुद्र है। रावसे अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र है।