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अनेकान्त/३ अध्यक्ष थे तथा माता त्रिशला वैशाली गणाधिपति चेटक की पुत्री थी। बालक के जन्म के साथ ही राष्ट्र के ऐश्वर्य में वृद्धि होने लगी, अत: उसका नाम वर्द्धमान रखा गया। ३० वर्ष की युवावस्था में उन्होंने आत्मकल्याण और लोकाभ्युदय के लिए दिगम्बर-दीक्षा धारण कर ली। १२ वर्ष तक घोर तपस्या के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान प्राप्त होने के ६६ दिन तक भगवान् की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। उनके प्रथम समवसरण की रचना तब हई, जब उन्हें गणधर के रूप में इन्द्रभूति गौतम की प्राप्ति हो गई। भगवान् महावीर ने देश-देशान्तर में अपनी दिव्यध्वनि से अनन्त प्राणियों का उपकार करते हुए, विहार के पावापुर नामक स्थान से ७२ वर्ष की अवस्था में निर्वाण पद को प्राप्त किया।
जिस युग में भगवान् महावीर का जन्म हुआ, वह युग विश्व में धर्म और अध्यात्म की क्रान्ति का युग था। चीन में कन्फ्यूशियस और लाओत्से, ग्रीस में सुकरात एवं प्लेटो, ईरान में जरथुस्त तथा भारतवर्ष में महावीर और बुद्ध सदृश विचारकों ने क्रान्ति का शंखनाद फूंका। क्योंकि सम्पूर्ण जगत में धर्म के नाम पर पाखण्ड और अनैतिकता का बोलबाला था। कुछ लोग जिहालोलुपता के वशीभूत हो, पशुबलि को धर्म का अनिवार्य अंग मानने लगे थे। निर्धन और दलितों को दास बनाया जा रहा था। नारी मात्र भोग की सामग्री मान ली गई थी। कुछ को छोड़कर, प्राय: राज्यसत्ता छोटे-छोटे उच्छृखल राजाओं के आधीन थी तथा वे एक दूसरे के खून के प्यासे थे। भगवान् महावीर का हृदय इन परिस्थितियों को बदलने के लिए विचलित रहने लगा। वे प्राणियों के कष्ट को दूर करने का उपाय सोचने लगे। अन्तत: उन्होंने ३० वर्ष की वय में सम्पूर्ण राज्यवैभव को छोडकर जीवन की सार्थकता के अन्वेषण के लिए गृह-त्याग दिया।
भारतवर्ष की संस्कृति त्याग-प्रधान रही है। यहां संग्रह के नहीं, अपितु त्याग के गीत गाये जाते रहे हैं। जन-मानस में त्यागियों की पूज्यता महत्त्वपूर्ण मानी जाती रही है। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी ने घर त्यागा, केवल १४ वर्ष के लिए और वह भी पिता की आज्ञा से, किन्तु वे