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53/3 अनेकान्त/8 समाधान – कोई उपचार से महाव्रती मानकर आर्यिकाओं को पूजा के योग्य कहते हैं, जो कथन उचित नहीं है। क्योंकि उपचार से महाव्रत तो आचार्यों ने प्रतिमाधारी श्रावक के भी कहा है। जो निम्न प्रमाण से स्पष्ट है :अ. प्रत्याख्यान तनुत्वान्मन्दतराश्चरण मोह परिणामाः।
सत्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते।। 71 ।। (रलकरंडक श्रावकाचार) अर्थ - प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का मंद उदय होने से अत्यन्त मन्द अवस्था को प्राप्त हुये, यहाँ तक कि, जिनके अस्तित्व का निर्धारण करना भी कठिन है, ऐसे चरित्र मोह के परिणाम महाव्रत के व्यवहार के लिये उपचारित होते हैं - कल्पना किये जाते हैं। आ. जैसाकि सर्वार्थसिद्धि अध्याय-7 सूत्र-21 की टीका में इस प्रकार कहा गया है :
इयति देशे एतावति काले इत्यवधारिते सामायिके स्थितस्य महाव्रतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यं । कुतः? अणुस्थूलकृतहिंसादि निवृतेः। संयम प्रसंग इति चेत् । न, तदघातिकर्मोदय सदभावात् । महाव्रतत्वाभाव इति चेत् । तन्न, उपचाराद् राजकुले सर्वगत चैत्राभिधानवत्। अर्थ - इतने देश में और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित की गयी सामायिक में स्थित पुरुष के पहले के समान महाव्रत जानने चाहिये, क्योंकि इनसे सूक्ष्म
और स्थूल दोनों प्रकार के हिंसा आदि पापों का त्याग हो जाता है। शंका - यदि ऐसा है, तो सामायिक में स्थित हुये पुरुष के सकल संयम का प्रसंग प्राप्त होता है? समाधान - नहीं, क्योंकि इसके संयम का घात करने वाले कर्मों का उदय पाया जाता है। शंका - तो फिर इसके महाव्रत का अभाव प्राप्त होता है? समाधान - नहीं, क्योंकि जैसे राजकुल में चैत्र (बौद्ध भिक्षु) को सर्वगत उपचार से कहा जाता है उसी प्रकार इसके महाव्रत उपचार से जानना चाहिये। आ. सागार धर्मामृत के अध्याय - 5/4 में इस प्रकार कहा है
दिग्वतोद्रिक्तवृत्तघ्नकषायोदयमान्यतः।
महाव्रतायतेऽलक्ष्यमोहे गेहिन्यणुव्रतम्।। 4 ।। अर्थ – अणुव्रती का प्रत्याख्यानावरण जनित चारित्र मोह का उदय अतिशय