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53/3 अनेकान्त / 50
है, जो सप्त धातु रहित परम औदारिक शरीर ( शुभदेह) में विराजमान हैं, जो क्षुधा, तृषा, भय, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मरण, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद, इन अठारह दोषों से रहित अत्यन्त शुद्ध हैं, जो आत्मा के अनुजीवी गुणों को घातने वाले चार घातिया कर्मरूप शत्रु को नष्ट कर देने के कारण अरिहन्त तथा इन्द्रों एवं देवों द्वारा पंचकल्याणरूपी पूजा के योग्य होने से अर्हन् कहलाते हैं, जो चौंतीस अतिशय, आठ प्रतिहार्य तथा चार अनन्तचतुष्टय इन 46 गुणों से युक्त हैं 4, ऐसे अर्हत परमेष्ठी का पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान में चिन्तन करना चाहिए ।
· द्वितीय पद ' णमो सिद्धाणं' में स्थित पदस्थ तथा रूपातीत ध्यान के ध्येयभूत सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूप को बताते हुए आचार्य श्री कहते हैं
ट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा ।
पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो । ।"
जिन्होंने चार घातिया कर्मो को नष्ट करने के बाद परमशुद्ध ध्यान के द्वारा शेष चार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर दिया है, आठों कर्मों के नष्ट हो जाने से जिनके सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघु, अवगाहना, सूक्ष्मत्व, अनन्तवीर्य और अव्याबाध ये आठों गुण प्रकट हो गये हैं", जो औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण पाँचों प्रकार के शरीर से मुक्त हो गये हैं, जो अलोकाकाश सहित तीन लोक के त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को उनके समस्त पर्यायों के साथ एक समय में ही जानने और देखने वाले हैं, जो निश्चय-नय से आकार रहित हैं, किन्तु व्यवहारनय से अपने अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार (पुरुषाकार) को धारण करने वाले हैं, जो सिद्धि को प्राप्त कर लेने के कारण सिद्ध कहलाते हैं, जो लोक के शिखर पर विराजमान हैं, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये ।
तृतीय पद ‘णमो आयरियाणं' में स्थित आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप बताते हुए वे कहते हैं
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'दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्रवरतवायारे
अप्पं परं च जुंजइ सो आयरियो मुणीं फेयो । "
जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार तथा तपाचार इन पाँच प्रकार के आचारों के पालन में स्वयं भी तत्पर रहते हैं और अन्य शिष्यों को भी तत्पर