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53/3 अनेकान्त/51 रखते हैं, जो बारह तप, दश धर्म, पाँच आचार, छः आवश्यक तथा तीन गुप्ति का पालन करते हैं वे आचार्य परमेष्ठी ध्यान करने योग्य हैं। चतुर्थ पद ‘णमो उवझायाणं' की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं -
जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो
सो उवज्झायो अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स। जो रत्नत्रय की आराधना में संलग्न रहते हैं तथा सदैव उत्तम क्षमादि दश धर्मो का एवं परद्रव्यों से भिन्न निज शुद्धआत्म द्रव्य का उपदेश देते रहते हैं, जो मुनियों में प्रधान हैं ऐसे 11 अंग और 14 पूर्व के ज्ञाता'' उपाध्याय परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये। पंचमपद ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' पद के ध्येयभूत साधु परमेष्ठी का स्वरूप निम्न प्रकार बताया है -
दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं।
साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स।। जो सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान सहित मोक्ष के मार्गभूत शुद्ध सम्यक्चारित्र की साधना में तत्पर रहते हैं, जो पाँच महाव्रत और पाँच समिति का पालन करते हैं, पाँचों इन्द्रियों को नियन्त्रित रखते हैं। छः आवश्यक (सामायिक, जिनेन्द्र देव की स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग) तथा शेष सात गुण" (अस्नान, मंजन का त्याग, वस्त्रत्याग, रात्रि के पिछले प्रहर में भूमि पर एक करवट से शयन, दिन में एक बार पाणिपात्र में अल्पाहार केशलोंच तथा 22 परीषहों का सहन) का पालन करते हैं, लोक में स्थित ऐसे समस्त साधुओं का ध्यान करना चाहिये।
इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र ने पदस्थ ध्यान के ध्येयभूत पाँचों परमेष्ठियों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया है। निश्चयनय से ये पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं। अतः शुद्ध आत्मद्रव्य ही ध्येय है।
-अलका, 35 इमामबाड़ा
मुजफ्फनगर
1. बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः-तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वामी 10, 2 2. सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः, वही 1, 1 3. सम्मइंसणणाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे।
ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइयो णियो अप्पा।। बृहद् द्रव्यसंग्रह, आचार्य नेमिचन्द्र, गाथा। 39