________________
53/3 अनेकान्त / 40
धारण कर मोक्ष प्राप्त करता है। कहा भी है। देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं
जिस दृष्टि से सम्यग्दर्शन से सम्पन्न गृहस्थ भी सम्यग्दर्शन - रहित मोही
मुनि की अपेक्षा उत्कृष्ट वर्णित किया गया है ( रत्न - 33) उस कारण से भी सम्यग्दर्शन का अधिक महत्व है । पुरुषार्थसिद्धि में आ. अमृतचन्द्र जी ने सर्वप्रथम सम्यक्त्व-प्राप्ति का उपदेश दिया है :
राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्र शिरोऽर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृत सर्वलोकं
लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः ।। रत्न - 41 ।।
चरणानुयोग में सम्यक्त्व का लक्षण गृहीत मिथ्यात्व के त्याग अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र एवं कुगुरु के त्याग की अपेक्षा वर्णित है एवं द्रव्यानुयोग में अगृहीत अनादि कालीन सहज उद्भूत पर पदार्थों में आत्मबुद्धि के त्याग की अपेक्षा व्याख्यायित है। दोनों ही प्रकार के मिथ्यात्व के त्याग - रूप सम्यक्त्व का महत्व है ।
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयनेन ।
तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।। 21 ।।
इन्हें व्यवहार - सम्यग्दर्शन व निश्चय - सम्यग्दर्शन की संज्ञा देकर आचार्यो ने साध्य-साधन के रूप में मान्यता दी है। पंचास्तिकाय टीका (106-107) में आ. अमृतचन्द्र जी ने व्यवहार - सम्यग्दर्शन को निश्चय-दर्शन का बीज कहा है। प्राथमिक जीवों को निश्चय के श्रद्धान-युक्त व्यवहार ही शरण होता है ।
तात्पर्य यह है, सम्यग्दर्शन को मोक्षमार्ग में पर्याप्त महत्त्व निर्दिष्ट किया गया है । अनेक रूपों में इस की मान्यता है । इसकी भावना के प्रभाव से ही जीव मिध्यात्व प्रकृति के तीन खंड ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति) कर देता है । यही कारण है कि एक बार सम्यक्त्व प्राप्त होने पर यदि वह छूट भी जाता है तो पुनः अर्द्धपुद्गल परावर्त्तन काल की अवधि में प्राप्त कर चारित्र परिणत होकर मोक्षसिद्धि कर लेता है ।
हैं
सम्यक् चारित्र विभिन्न अनुयोगों की दृष्टि से चारित्र के लक्षण भी भिन्न-भिन्न ज्ञात होते हैं। सम्यक् शब्द आचरण की समीचीनता, यथार्थता अथवा सम्यक्त्व की सहितता का द्योतक है । चारित्र के कतिपय निम्न लक्षण दृष्टव्य
: