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53/3 अनेकान्त/41 1. पाप से विरक्ति का नाम चारित्र है। यथा, क) हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च।
पाप प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रं ।। 49 ।। रलकरण्ड।। ख) "हिंसादि निवृत्तिलक्षणं चारित्रम्" । रत्नकरण्ड टीका 471 आ. प्रभाचन्द्र।।
ये लक्षण चरणानुयोग-सम्मत हैं। प्रथमानुयोग में सामान्य एवं सरलतम छोटे-छोटे व्रत नियम को भी चारित्र कहा गया है। प्रथमानुयोग में भी उपरोक्त पाप-निवृत्ति को भी चारित्र कहा है। 2. "स्वरूपे चरणं चारित्रं।" समयसार आत्मख्याति टीका आ. अमृतचन्द्र।
आत्मा का आत्मा में विचरण करना ही चारित्र है। यथा, “अप्पा अप्पम्मि ओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गो ति।।" कुन्दकुन्द।। 3. मोह और क्षोभ से रहित परिणाम ही सम है, वही चारित्र है, वही धर्म है।
"चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिठो।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। प्रवचनसार-7।। द्रव्यानुयोग-सापेक्ष उपरोक्त लक्षण निश्चय-सम्यक्चारित्र के हैं।
4. ज्ञायक भाव के तीन भेद करते हुए आत्मख्याति में आ. अमृतचन्द्र ने रागद्वेष को परिहरण करने वाली ज्ञान की समर्थ प्रवृत्ति को चारित्र कहा है।
___5. बृहद् द्रव्यसंग्रह में चारित्र के निश्चय एवं व्यवहार रूपों को व्याख्यायित किया गया है। निश्चय चारित्र का स्वरूप उपरोक्त प्रकार है। व्यवहार चारित्र का वर्णन करते हुए आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं :
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं ।। 45 ।। द्रव्यसंग्रह।
-अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र जानो। यह व्रत-समिति-गुप्ति है। ऐसा व्यवहार-नय से जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
6. चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम अथवा क्षय से प्रकट होने वाली आत्मविशुद्धि का नाम चारित्र है। अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ कुल बारह एवं नौ नोकषाय कुल 21 प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय यहाँ अभीष्ट है (गोम्मटसार)। यह करणानुयोग-सम्मत लक्षण है। उपरोक्त प्रथमानुयोग, करणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग सापेक्ष-लक्षण साधन हैं और