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58/9 अनेकान्त / 44
निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य एवं प्रभावना रूप तथा 25 दोषों के परिहारस्वरूप सम्यक्त्व-चरण चारित्र की नितान्त आवश्यकता है क्योंकि अंगहीन सम्यक्त्व संसार - परम्परा को नष्ट नहीं कर सकता। देखिये,
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शन जन्म संततिं ।
नहि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ।। रत्नकरण्ड-21 । ज्ञातव्य है कि मिथ्यात्व अनीति एवं अभक्ष्य त्याग रूप चारित्र की आवश्यकता तथा सप्तव्यसन-त्याग-रूप चारित्र की महत्ता सम्यक्त्वोत्पत्ति एवं स्थिति हेतु अनिवार्य है ।
मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता रूप है। दर्शन और चारित्र तराजू के दो पलड़ों के समान हैं तथा मध्यवर्ती ज्ञान काँटे की भाँति दोनों का नियन्त्रक है । दोनों पलड़ों का महत्त्व समान है एवं विध दर्शन और चारित्र का महत्त्व भी समान रूप से है । परिस्थिति अथवा अपेक्षा वश मूल्यांकन में न्यूनाधिकता संभव है। यहाँ भी गौणता एवं मुख्यता का दृष्टिकोण धारणीय है । जैसे जिस समय प्रथम पलड़े पर मापक (बाँट) रखे हुए हैं तथा दूसरे पर उससे कम भार की वस्तु है तो पहले को भारी ( अधिक महत्ता वाला) माना जाता है, किन्तु अन्य समय में यदि वस्तु का भार अधिक हो जाता है तो वह भारी माना जाता है, तथा वस्तु मापक
बराबर रखी जाती है तो सही तौल (समीचीनता) का निर्णय होता है। इसी प्रकार दर्शन एवं चारित्र दोनों का महत्त्व एवं आदर हमें समान रूप से करना चाहिए। ज्ञान रूपी काँटे का कार्य सम्यक्त्व एवं चारित्र रूपी पलड़ों को समान रूप से तौलना है ।
चारित्र नौका के समान है, तैरना तो नौका को ही होगा। खेवटिया भी चाहिए। उसी प्रकार संसार समुद्र से तिरना तो चारित्र से ही होगा। अकेले कर्णधार - दर्शन का कोई प्रयोजन नहीं । सम्यग्दर्शन जन्मभूमि के समान है तथा चारित्र जननी के समान है। मोक्षतत्त्व रूपी पुत्र को चारित्र रूपी जननी ही जन्म देती है, हाँ परम्परा रूप से दर्शनरूपी जन्मभूमि भी नियामक कारण है । आ. कुन्दकुन्द
“दंसणमूलो धम्मो" एवं "चारित्तं खलु धम्मो” कहकर दर्शन को धर्म मूल तथा चारित्र को साक्षात् धर्म कहा है, अर्थात् सम्यग्दर्शन के महल की नींव के सदृश है एवं चारित्र साक्षात् महल है। यदि कोई अज्ञानी बिना नींव के महल बनावेगा तो वह टिकाऊ नहीं होगा तथा यदि मात्र नींव को ही महल मान लेगा तो आश्रयविहीन