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53/3 अनेकान्त / 47 को, अर्हन्तों को और श्रमणों को बार-बार नमस्कार कर श्रामण्य अंगीकार करो। 28 मूलगुणरूप चारित्र ग्रहण करो ।
शमबोधवृत्त तपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः ।
पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तं ।। आत्मानुशासन - 15 ।। ( आ. गुणभद्र )
- शम ( कषायों का उपशम), ज्ञान, चारित्र और तप (बिना सम्यक्त्व के ) पाषाण के भारवत् हैं और पुरुष के वे ही यदि सम्यक्त्व सहित हैं तो मणि के समान पूज्य हैं ।
जह तारायणसहियं ससहरबिम्बं खमण्डले विमले ।
भाइ य तह वय विमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।। भावपाहुड़ - 144। - जैसे निर्मल आकाश में तारागणसहित चन्द्रमा का बिम्ब शोभित होता है, वैसे ही व्रतों में निर्मल तथा सम्यग्दर्शन से शुद्ध जिनलिंग (निर्ग्रन्थ नग्न मुनिवेश) शोभित होता है ।
सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ वि सुपसिद्धा ।
णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं । । चारित्र पाहुड़ - 9 ।। - जो ज्ञानी अमूढदृष्टि सम्यक्त्व चरण से शुद्ध होते हैं यदि वे चारित्र से भी अच्छी तरह शुद्ध हों तो शीघ्र ही निर्वाण को पाते हैं। अकेले सम्यग्दृष्टि होने से नहीं । स्याद्वाकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानय परस्पर तीव्रमैत्री
पात्रीकृतः श्रयति भूमि मिमां स एकः । । समयसार कलश । (स्याद्वाद अधिकार - 21 )
- स्याद्वाद की कुशलता और सुनिश्चल संयम चारित्र के द्वारा जो निरंतर संलग्न होकर अपनी आत्मा का ध्यान करता है तथा ज्ञान (सम्यक्त्व सहित ) और क्रिया-नय की मित्रता ने जिसे पात्र बना दिया है, ऐसा एकमात्र ( बिरला ) जीव ही समयसाररूप (तृतीय) भूमिका का आरोहण करता है ।
तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व और संयम चारित्र परस्पर पूरक हैं। तभी दोनों का महत्त्व है । सिक्का कभी एक पहलू का नहीं हो सकता। इसी प्रकार इनका सद्भाव है।