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53/3 अनेकान्त/42 तीसरा अंतिम करणानुयोग-सम्मत-लक्षण साध्य है। यह चारित्र स्थिति का नियामक लक्षण है। द्रव्यानुयोग-सम्मत लक्षण को साधन एवं साध्य दोनों रूपों में जानना चाहिए।
सम्यक्चारित्र का महत्त्व - आ. कुन्दकुन्द ने चारित्र को ही धर्म कहा है एवं उसे 'दसणमूलो' कहकर सम्यकपन प्रदान किया है। उन्होंने कहा है कि नग्नता, निग्रन्थता, समस्त प्रकार परिग्रहत्याग-रूप-अहिंसा ही मोक्षमार्ग है, इसके बिना तीर्थंकरत्व होने पर भी सिद्धि नहीं होती। देखिए,
णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो य मोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।। सूत्रपाहुड़-23 ।। ___ चारित्र कसौटी है, परीक्षा है ज्ञान व श्रद्धान की। जो ज्ञान-श्रद्धान, चारित्ररूपी फल के रूप में प्रकट नहीं होता वह व्यर्थ ही है। आ. समन्तभद्र रत्नकरण्ड में कहते हैं,
पापमरातिधर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्।
समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति।। 148 ।। -पाप जीव का शत्रु है, धर्म (पाप से विपरीत, रत्नकरण्ड के अनुसार पुण्य-रूप, व्रत-रूप) बन्धु है। यह निश्चय करने वाला, ग्रहण योग्य चुनने वाला यदि आगम को जानता है तो वह ज्ञाता श्रेयस्कर है, प्रशंसनीय है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान की शोभा चारित्र से, संयम से है। आ. समन्तभद्र ने पाँच अणुव्रतों में प्रसिद्ध पुरुषों के नाम का उल्लेख करते हुए, थोड़े से त्याग की भी महती प्रशंसा की है तथा अणुव्रतों से इस लोक में अतिशय प्रतिष्ठा व परम्परयास्वर्ग एवं निर्वाण-सुख की प्राप्ति का उद्घोष किया है,
“पञ्चाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकं । यत्रावधिरष्टगुणा दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते।। 63 ।। मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः।
नीली जयश्च संप्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ।। 64 ।। उन्होंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पञ्च पापों की महती निन्दा की है एवं सदैव पापों से बचने की विस्तृत रूप से प्रेरणा की है।
अर्हन्त भगवान् की दिव्य-ध्वनि को द्वादशांग में गूंथने वाले गणधर प्रभु ने सर्वप्रथम आचारांग को रखा है, तथा श्रावक के चारित्र का निरूपक उपासकाध्ययन