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53/3 अनेकान्त/13 पुराणों में अनेक स्थानों पर अव्रती स्त्रियों तथा राजा-महाराजाओं की पूजा और अर्घ्य का भी उल्लेख है। क्या इस कथन से उनकी पूजा को पंचपरमेष्ठी की पूजावत् पूजा मानेंगे? तिलोयपण्णत्ति में कुलकरों की पूजा का भी उल्लेख है। क्या व्रत और संयम रहित कुलकरों की मुनियों की तरह पूजा करना जैनधर्म के अनुकूल है? अ. सोऊण तस्सवयणं, संजादाणिष्मया तदा सव्वे । अचंति चलण-कमले, थुणंति बहुविह-पयारेहिं ।। 436 ।।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4) अर्थ – इस प्रकार उन (प्रतिश्रुति/कुलकर) के वचन सुनकर वे सब नर-नारी निर्भय होकर बहुत प्रकार से उनके चरण-कमलों की पूजा और स्तुति करते हैं।
आचार्य समन्तभद्र ने मातंग चांडाल तथा धनदेवादिक की प्रशंसा करते हुए लिखा है :आ. मातंगो धनदेवश्च, वारिषेणस्ततः परः।
नीली जयश्च संप्राप्ता, पूजातिशयमुत्तमम्।। 64 ।। (रत्नकरंडक श्रावकाचार) अर्थ - मातंग (यमपाल) चांडाल, धनदेव, वारिषेण राजकुमार, नीली और जयकुमार, ये क्रम से अहिंसादि अणुव्रतों में उत्तम पूजा के अतिशय को प्राप्त हुये हैं। (क्या इस श्लोक में पूजा का अर्थ जिनेन्द्र-पूजा के समान, पूजा है?) । इ. आदि पुराण में इस प्रकार वर्णन है :
ततस्तौ जगतां पूज्यो पूजयामास वासवः।
विचित्रैर्भूषणैः स्त्रग्भिरंशुकैश्च महार्घकै।। 78 ।। पर्व 14 अर्थ - तत्पश्चात् इन्द्र ने नाना प्रकार के आभूषणों, मालाओं और बहुमूल्य वस्त्रों से उन जगत्पृज्य माता-पिता की पूजा की।
क्या उपरोक्त श्लोक में पूजा का अर्थ अनर्घपद की कामना से की जाने वाली पूजा है, या इन्द्र के मन में भगवान के माता-पिता के प्रति उमड़े आदर-भाव की आभव्यक्ति है। ई. भगवान ऋषभदेव के प्रथम आहार के उपरान्त राजा श्रेयांस की पूजा का उल्लेख करते हये हरिवश पुराणकार (आ जिनमन) ने लिखा है :
अभ्यर्चिते तपोवृद्धयैः धर्म तीर्थकरे 1. दानतीर्थकरं देवाः साभिषेकमपूजयन्। (सग-9, श्लोक 196 हरिवंश पुराण)