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53/3 अनेकान्त/11 तरह, नवधा-भक्ति इष्ट होती, तो कहीं न कहीं उसका उल्लेख अवश्य किया जाता, जबकि ऐसा कहीं भी नहीं है।
यह बात कितनी विचित्र लगती है कि उपचार से महाव्रत धारण करने वाली आर्यिकाओं को अपनी पूजा, परिक्रमा आदि बाह्य मान-मर्यादा का इतना अधिक आग्रह है कि जहाँ इस प्रकार उनकी भक्ति का प्रदर्शन न हो वहाँ के सुश्रावकों से शुद्ध आहार लेना भी उन्हें स्वीकार नहीं होता। जो जबरन अपने अर्घ चढ़वाएँ, अपनी नवधा-भक्ति करायें, क्या उन्हें आर्यिका कहा जा सकता
चर्चा नं. 7 – क्या तीनों प्रकार के पात्रों की नवधा-भक्ति होनी चाहिये? समाधान - कुछ लोगों का कहना है कि तीनों प्रकार के पात्रों को नवधा-भक्ति पूर्वक ही आहार देने का विधान है। अतः नवधा-भक्ति होना ही चाहिये। यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो किसी भी श्रावकाचार में तीनों प्रकार के पात्रों की सामान्यरूप से नवधा-भक्ति करने का उल्लेख ही नहीं है। सर्वत्र उनकी यथा-योग्य भक्ति का ही उल्लेख है। जिन ग्रंथों में इनका उल्लेख है भी, वे एकदम अर्वाचीन हैं (दानशासन, सुधर्मश्रावकाचार, श्रमण संघ संहिता), उन्हें प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। कहा है :
जघन्य मध्यमोत्कृष्ट पात्राणां गुण शालिनां। ___ नवधा दीयते दानं यथा योग्यं सुभक्तितः।। श्रमण संघसहिता पृ. 241 ।। अर्थ - गुणवान जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट पात्रों को भक्तिपूर्वक यथायोग्य नवधा-भक्ति से दान देना चाहिये।
उनमें अन्य भी आगम-विरूद्ध कई बातें हैं। इस श्लोक के अनुसार, दूसरी बात यदि हम यथायोग्य भक्ति न कर सामान्य रूप से नवधा-भक्ति करते हैं तो जघन्य-पात्र असंयत सम्यग्दृष्टि और ब्रह्मचारी भाई-बहिनों की भी नवधा-भक्ति करने का प्रसंग आता है। अतः आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि की नवधा-भक्ति का आग्रह आगम के अनुकूल न होकर मिथ्यात्व का सम्पोषक है।
क्षुल्लकों के बारे में जैन गजट दि. 24.04.1997 में इस प्रकार छपा था-"क्षुल्लक ऐषणादोष से रहित एक बार भोजन करें। दाढ़ी, मूंछ तथा सिर के बालों को उस्तरे से मुँडवावें, अतिचार लगने पर प्रायश्चित करें। निर्दिष्ट काल में भोजन के लिये भ्रमण करें। भ्रमर की तरह 5 घरों में से पात्र में भिक्षा लेकर, उनमें