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53/9 अनेकान्त/27 अर्थात् जो व्यक्ति आपकी इस स्तुति (भक्तामर-स्तोत्र) को पढ़ता है, उसका मदोन्मत्स हाथी, सिंह, वन की अग्नि, सर्प, संग्राम, समुद्र, जलोदर रोग तथा बन्धन से उत्पन्न भय स्वयं ही तत्काल डरकर नष्ट हो जाता है।
काम, भय के पश्चात् महत्त्वपूर्ण मनःसंवेग माना गया है। यह प्रायः धीरों के हृदय को भी विचलित कर देता है किन्तु जिनेन्द्र भगवान् ने विकारों की प्रतिपक्षी शक्ति को प्रकट कर लिया है, अतः उनका मन बिल्कुल भी विचलित नहीं होता है। पुरुष की कामवासना को स्त्रियाँ उद्दीप्त करती हैं, परन्तु जिनेन्द्र भगवान के चित्त को देवांगनायें भी लेशमात्र चञ्चल नहीं बना पाती हैं। प्रभु की स्तुति करते हुए आचार्य मानतुंग कहते हैं -
“चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदंशागनाभि - र्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन
किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ।।" हे प्रभु! इसमें आश्चर्य की क्या बात है कि देवांगनायें आपके मन को तनिक भी विकार के मार्ग पर नहीं ले जा सकी हैं। अनेक पर्वतों को हिला देने वाली प्रलय-कालीन पवन से क्या कभी सुमेरु पर्वत की चोटी चलायमान हो सकती है?
मायाचार की प्रधानता के कारण स्त्री की यद्यपि अनेकत्र निन्दा की गई है, तथापि उनके जीवन को तब ज्योतिर्मय भी माना गया है, जब उन्होंने किसी महामानव को जन्म दिया हो या फिर स्वयं साधना का मार्ग अपनाया हो। तीर्थकर की माता किसी एक के द्वारा नहीं अपितु सम्पूर्ण जगत् के द्वारा पूज्या मानी गई है। भक्तामर स्तोत्र के एक हृदयग्राही श्लोक में कहा गया है -
'स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।। सैकड़ों मातायें, सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं किन्तु आपके समान पुत्र को कोई अन्य माता जन्म नहीं दे सकी है। सभी दिशायें तारों को तो धारण करती हैं परन्तु चमकती हुई किरणों वाले सहस्ररश्मि (सूर्य) को तो पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है।