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53/3 अनेकान्त/26 हम मार्गान्तरीकरण (Redirection) कह सकते हैं।
आचार्य मानतुंग ने संसार के प्राणियों को भयभीत देखकर उन्हें विविध भयों से संरक्षित होने हेतु जिनेन्द्रदेव की स्तुति करने की प्रेरणा दी है, जैसी कि उन्होंने स्वयं स्तुति की है। जगत् में हस्ति-सिंह आदि हिंसक पशुओं का भय, विषधर सादि का भय, दावाग्नि आदि प्राकृतिक आपदाओं का भय, युद्ध की विभीषिका का भय, यात्रा में वाहन आदि के भंग होने का भय, विविध व्याधिजन्य भय तथा राज-बन्धन आदि का भय सतत विद्यमान है। इन सभी भयों का वर्णन आचार्य मानतुंग ने करते हुए जिनेन्द्र-भगवान् की स्तुति से उन्हें निवारण-योग्य माना है। उन्होंने लिखा है कि हे प्रभो! मदमत्त, प्रचण्ड-क्रोधी तथा उद्धत हाथी को देखकर भी आपके भक्त भयभीत नहीं होते हैं। हाथियों के संहारक सिंहों के भयानक पंजों के बीच पड़े हुए भी आपके भक्तों पर सिंह आक्रमण नहीं कर पाता है। जंगल में लगी हुई भयंकर आग भले ही तेज पवन से धधक रही हो, पर आपके नामरूपी जल के स्मरण से वह तत्काल शान्त हो जाती है। यदि जहरीला भयानक साँप भी आपके भक्त को डस ले तो भी उसके हृदय में यदि आपका पवित्र नाम है, तो वह नाम अमोघ औषधि बन जाता है। अश्वसेना, हस्तिसेना आदि वाली घमासान लड़ाई में भी आपको स्मरण करने से बलवान् राजाओं की सेना उसी प्रकार तितर-बितर हो जाती है, जैसे सूर्य के उदित होने पर अन्धकार समाप्त हो जाता है। भयानक युद्ध में आपके चरणों की शरण लेने वाला भक्त अजेय शत्रुओं को भी जीत लेता है। भयानक मंगर-मच्छों से परिपूर्ण समुद्र में तूफान के समय भी तुम्हारे भक्त पार हो जाते हैं। जलोदर रोग से अपने जीवन की आशा छोड़ चुके रोगी भी आपकी चरणरज को माथे पर लगाने से कामदेव के समान सुन्दर हो जाते हैं। कारागार में बेड़ियों से जकड़े हुए आपके भक्त आपके नाम के स्मरण से बन्धनमुक्त हो जाते हैं तथा निर्भय हो जाते हैं। इन सब भयों का पुनः उल्लेख करते हुए भगवद्भक्ति एवं स्तुति से इनके नष्ट हो जाने की बात आचार्य मानतुंग ने कही है -
'मत्तद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहिसंग्ग्रम-वारिधि-जलोदर-बन्धनोत्यम्। तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते।।"