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53/3 अनेकान्त/36
लेहुरे! बड़े प्रिय प्रमाण दियो
प्रिय प्रमाण धुव, उत्पन्न शाह। ऐसा लग रहा है मानो हजार क्या, लाखों क्या, करोड़ो क्या, असंख्य अमृत कलशों से आत्मा का अभिषेक हो रहा है और वे कलश-जल सब इसी आत्मा में हैं, बनते हैं और वह स्वयं भी अभिषिक्त हो रहा है।
'शून्य समूह बारि-बार हृदय में ही देखउ' । इस प्रकार अपने अनुभवों को दति-दर्शाते सम्वत् पन्द्रह सौ बहत्तर (1572) वर्ष, ज्येष्ठ वदि छठि की रात्रि, सातें शनिचर के दिन, जिन तारण तरण शरीर छूटो, अनन्त सौख्य उत्पन्न प्रवेश!
मेरा महोत्सव मत करो अस्थाप का ही कीजिए परिचय स्वयं चिद्रूप का अन्मोद भर भर लीजिए। (पद्यानुवाद)
यह सब मिलेगा-यदि तुम अंकुर आचरण याने आचरण का अंकुरारोपण करो-तब लगेगा क्या हुआ। पाओगे वह होगा
गम्य, अगम्य, अथाह, अग्रह, अलह (अलस्य), अभय, भय रहित, सहज स्वकीय की उत्पत्ति-अनन्तानन्त, अनन्तानन्त, अनन्तानन्त अनन्त उत्पन्न प्रवेश । जय शाह, जय शाह!
ओं उवन उवन उवं उवनं उवनं सोई लोय नन्त प्रवेशं उवन शरण सोई विलयं .
उवन सुई तारकमल मुक्ति विलसन्ति। ॐ शुद्धात्मा का उदय हो रहा है। उदय हो रहा है। अपने आत्मा में उस उदय का, उस अनंत का प्रकाश प्रवेश हो रहा है, संसार के शरण का विलय करके उसका उदय हो रहा है। उसी उदय में कमल के समान तारण (स्वामी) मुक्ति में विलाय करने लगे हैं।
और अन्त में यह सूत्र - नट-नाठ। घटघाट। सटसाट । झटझाट। लटलाट । वटवाट।
विद्वानों के लिए पहेली है यह सूत्र । मेरे विचार में तारणस्वामी कहते हैं; हे आत्मा तूही नट है तूही नचाने वाला है, तूही घट है और तूही तेरा घाट (मंजिल) है। (कर्म) शठ के साथ तू भी शाठ्य कर; शीघ्र कर्मों की धूल झाड़ दे ; लाट (तुच्छ विचारों) को लटका दें ; हे वट (वटोही) मोक्ष का वाट (मार्ग) पकड़/धर्म