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53/8 अनेकान्त / 97 रूपी वट की वाट ( रास्ता ) पकड़ अथवा मुक्ति रूपी वट वाली वाटिका में रमण
कर ।
यह तो एक झलक है आत्मा के अनुभवों की । तारणस्वामी की स्वानुभूतियों का सागर तो 'ममल पाहुड़' में है जो गीतों का एक बड़ा ग्रंथ है। इसका टीका युक्त अनुवाद ब्र. शीतलप्रसाद जी ने सन् 1936 में किया था जिसमें उन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र, समयसार व गोम्मटसार के ज्ञान का भरपूर उपयोग किया है। इस पाहुड़ में गीतों को 'फूलना' नाम दिया है। आत्मा में फूल खिलने की वह बात 'गीत' या 'भजन' में नहीं आती जो 'फूलना' में है। 'फूलना' के पदों को 'गाथा' नाम दिया है । 'ममल पाहुड़' के फूलना (158) 'मिलन समय गाथा' के बारे में ब्र. शीतलप्रसाद जी ने लिखा है कि यह उस समय प्रचलित पुरानी हिन्दी का नमूना है, यथा
विलस रमन जिन मो ले जाई
उव उवन स्वाद रस मिलन मिलाई -1
जिन हो साही जिनय जिना
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जिन उवन समय सुइ सिधि रमना - 2
इसका अर्थ है - जिनेन्द्र (के गुणों) में मगन होना मुझे विलास (आनन्द) की ओर ले जाता है । जब (समय) उत्पन्न होता है, तब (स्वात्म) मिलन के रस का स्वाद मिलता है । जिस जिन ने (कर्मो को ) जीत लिया है उस जिन की साधना करो । जब जिन का समय उत्पन्न हो जाता है वही सिद्धि (मुक्ति) में रमण ( आनन्द की प्राप्ति ) है ।
यह अर्थ मैंने अपने हिसाब से किया है। क्या ही अच्छा होता स्वयं शीतलप्रसाद जी या बाद में जयसागर जी एक तारण शब्द कोष भी स्वाध्याय करने वालों को उपलब्ध करा देते !!
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