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53/3 अनेकान्त/7 वास्तविकता तो यह है कि आर्यिकाओं के संपूर्ण 28 मूलगुण ही नहीं होते। उनके वस्त्र धारण करने के कारण स्पर्शन इन्द्रियजय, अपरिग्रह-महाव्रत तथा नग्नत्व ये तीन मूलगुण नहीं होते। बैठकर आहार लेने से एक मूलगुण नहीं होता। पूर्ण रूप से अहिंसा महाव्रत नहीं होता। मासिक धर्म के उपरांत स्नान से ही शुद्धि होती है, अतः इनके अस्नान मूलगुण भी अखंड नहीं पलता। मूलगुण ही जब पूरे नहीं हैं तो उनको मुनियों के समान पूज्य कैसे माना जा सकता है?
उपरोक्त सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि आर्यिकाओं को संयमी नहीं कहा जा सकता है। चर्चा नं. 4 - क्या आर्यिका पूज्य है? समाधान - हमारे पूज्य नवदेवता होते हैं :- 1. अरिहंत, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय, 5. साधु, 6. जिनधर्म, 7. जिनागम, 8. जिनचैत्य, 9. जिनचैत्यालय।
अरहंत सिद्ध साहू तिदयं जिण धम्म वयण पडिमाहू। जिणणिलया इदिराए, णवदेवा दिन्तु में वोहि ।।
(रत्नकरंड श्रावकाचार श्लोक 119 टीका पं. सदासुखदास जी) अर्थ – अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनवाणी, जिनप्रतिमा, जिनालय इस प्रकार ये नवदेवता हैं 'ते मोकू रत्नत्रय की पूर्णता देओ।' इनमें आर्यिका या क्षुल्लक आदि को कोई स्थान नहीं है। हम वीतराग प्रभु की पूजा करने वाले उनकी पूजा कैसे करें, जिनके पास अभी सोलह हाथ की साड़ी रूप परिग्रह हो या जिन्होंने अभी पाँच पापों का भी पूर्णतया त्याग न किया हो।
ऐसा भी कुछ विद्वान् कहते हैं कि आर्यिका पीछी आदि संयम के उपकरण रखती हैं, इसलिये पूज्य हैं। यह बात भी सिद्ध नहीं होती। वास्तव में पीछी से पूज्यता नहीं आती। पूज्यता तो गुणों से आती है। तीर्थकर के भी मुनि-अवस्था में पीछी नहीं होती। चारणऋद्धिधारी मुनि भी पीछी नहीं रखते हैं। वास्तव में गुणों से युक्त पीछीधारी को पूज्यता आती है।
उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यिकादि देशसंयमी की कोटि में आती हैं और वे मुनिवत् पूजा के योग्य नहीं हैं। चर्चा नं. 5 - क्या आगम में उपचार से महाव्रती मानने पर, उनको मुनि-तुल्य मानना उचित है?