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अनेकान्त/53-2 %%%%%%%%%% %% %%%%% %
इसी प्रकार आचार्य गुणभद्र ने 'उत्तर पुराण' में, आचार्य रविषेण ने 'पद्म पुराण' में, आचार्य जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में तथा अन्य अनेक शास्त्रों में सम्मेद शिखर को बीस तीर्थंकरों और असंख्य मुनियों की निर्वाण-भूमि बताया है। 'मंगलाष्टक' में भी चार तीर्थंकरों की निर्वाण-भूमियों का उल्लेख करके शेष बीस तीर्थंकरों की निर्वाण-भूमि के रूप में सम्मेद शैल को मंगलकारी माना है। जटासिंह नन्दी ने 'वरांगचरित्र' में लिखा है
"शेषा जिनेन्द्रास्तपसः प्रभावाद् विधूय कर्माणि पुरातनानि। धीराः परां निवृतिमभ्युपेता: सम्मेदशैलोपवनान्तरेषु॥27-92॥
संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थों के अतिरिक्त अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के कवियों ने भी सम्मेद शिखर को बीस तीर्थंकरों एवं अनेक मुनियों की सिद्ध भूमि माना है। ___ मराठी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि गुणकीर्ति (अनुमानतः 15वीं शताब्दी का अन्तिम चरण) अपने गद्य ग्रन्थ 'धर्मामृत' (परिच्छेद 167) में लिखते हैं
"सम्मेद महागिरि पर्वति बीस तीर्थंकर अहठ कोडि मुनिस्वरु सिद्धि पावले त्या सिद्ध क्षेत्रासिं नमस्कारु माझा।"
अपभ्रंश भाषा के कवि उदयकीर्ति (12-13वीं शताब्दी) ने 'तीर्थ वन्दना' नामक अपनी लघु रचना में सम्मेद शिखर के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख किया है
'सम्मेद महागिरि सिद्ध जे वि। हउँ बंदउँ बीस जिणंद ते वि।'
गुजराती भाषा के कवि मेघराज (समय 16वीं शताब्दी) ने विभिन्न तीर्थों की वन्दना के प्रसंग में सम्मेद शिखर की वन्दना में लिम्नलिखित पद्य बनाया है
चलि जिनवर जे बीस सिद्ध हवा स्वामी संमेद गिरीए। सुरनर करे तिहा जात्र पूज रचे बड़भाव धरीए॥
भट्टारक अभयनन्दि (सूरत) के शिष्य सुमतिसागर (समय 16र्वी शताब्दी के मध्य में) ने 'तीर्थजयमाला' में लिखा है
"सुसंमेदाचल पूजो संत। सुबीस जिनेश्वर मुक्ति वसंत॥
नन्दीतटगच्छ, काष्ठासंघ के भट्टारक श्री भूषण के शिष्य ज्ञानसागर (समय 1578-1620) ने गुजराती में 'सर्वतीर्थ-वन्दना' लिखी है। इसमें कुल 101
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