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अनेकान्त / 53-2
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भट्टारक रत्नचन्द्र मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक थे। ये हुंबड़ जाति के थे। इन्होंने 'सुभौमचक्रि-चरित्र' की रचना सं. 1683 में सागपत्तन (सागवाड़ा, वाग्वर देश) के हेमचन्द्र पाटनी की प्रेरणा से पाटलिपुत्र में गंगा के किनारे सुदर्शन चैत्यालय में की थी। पाटनी जी भट्टारक रत्नचन्द्र जी के साथ शिखर जी यात्रा के लिए गये थे । इनके साथ आचार्य जयकीर्ति तथा श्रावकों का संघ भी था । इस सम्बन्ध में उन्होंने ग्रन्थ की प्रशस्ति में उल्लेख भी किया है।
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कारंजा के सेनगण के भट्टारक सोमसेन के पट्टशिष्य भट्टारक जिनसेन द्वारा सम्मेदाचल की यात्रा का उल्लेख मिलता है। जिनसेन का समय शक सं. 1577 से 1607 (सन् 1655 से 1685) तक है। इनके सम्बन्ध में सेनगण मन्दिर नागपुर में स्थित एक गुटके में उल्लेख है कि भट्टारक जिनसेन ने गिरनार, सम्मेद शिखर, रामटेक तथा माणिक्य स्वामी की यात्राएं संघ सहित की थीं और उन्होंने संघ ले जाने वाले सोयरा शाह, निम्बाशाह, माधव संघवी, गनवा संघवी और कान्हा संघवी का संघपति के रूप में तिलक किया था। कान्हा संघवी का यह सम्मान समारोह रामटेक में किया गया था ।
सम्मेद शिखर माहात्म्य की रचनाएं
अनेक कवियों ने विभिन्न भाषाओं में सम्मेद शिखर के माहात्म्य और पूजाओं की रचनाएं की हैं, उनसे एक महान् सिद्धक्षेत्र और तीर्थराज के रूप में सम्मेद शिखर के गौरव पर प्रकाश पड़ता है और इस तीर्थक्षेत्र का नाम लेते ही श्रद्धा से स्वत: ही मस्तक उसके लिए झुक जाता है।
गंगादास कारंजा के मूलसंघ बलात्कारगण के भट्टारक धर्मचन्द्र के शिष्य थे। आपने मराठी में पार्श्वनाथ भवान्तर, गुजराती में आदित्यवार व्रत कथा, त्रेपन क्रिया विनती व जटामुकुट, संस्कृत में क्षेत्रपाल पूजा एवं मेरुपूजा की रचना की है । आपका काल सत्रहवीं शताब्दी है । आपने संस्कृत में सम्मेदाचल पूजा भी बनायी, जो सरल और रोचक है।
मधुबन की धर्मशालाएं
बीसपन्थी कोठी सबसे प्राचीन है। इसकी स्थापना सम्मेद शिखर की यात्रार्थ आने वाले जैन बन्धुओं की सुविधा के लिए अनुमानत: सोलहवीं शताब्दी में हुई थी। यहां कोठी का मतलब धर्मशाला है।
यह कोठी ग्वालियर गादी के भट्टारक जी के अधीन थी। इस शाखा के भट्टारक महेन्द्रभूषण ने शिखरजी पर एक कोठी और एक मन्दिर की स्थापना
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