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अनेकान्त/53-2
%%%% %%%%%% %%%% %%% %% % विशेषज्ञ वकील थे। उन्होंने तीर्थराज की सेवा करने और बिना किसी फीस के मुकदमे में काम करने के अभिप्राय से बैरिस्टरी का व्यवसाय त्याग दिया, जिससे उनको कई हज़ार रुपये मासिक आमदनी थी। श्री चम्पतराय के लिखने पर मैंने भी तीर्थराज की सेवा बिना किसी फीस करना स्वीकार कर लिया।
हम दोनों 2 दिसम्बर 1923 को लखनऊ से चलकर 3 दिसम्बर को हज़ारीबाग पहुंच गये। 4 दिसम्बर 1923 से 16 जनवरी तक हमारी तरफ के गवाह पेश होते रहे, जिनमें मुख्यतया लाला देवीसहाय जी फीरोज़पुर, सेठ हरनारायण जी भागलपुर, रायसाहब जुगमन्धर दास नजीबाबाद, सर सेठ हुकुमचन्द इन्दौर, रायबहादुर नांदमल अजमेर, रायसाहेब फूलचन्दराय लखनऊ, पंडित पन्नालाल न्याय दिवाकर, पंडित जयदेव जी, पंडित गजाधर लाल जी थे। कई महीने गवाही चली।
उभयपक्ष की बहस 18 दिन तक चली और 26 मई 1924 को हमारा दावा खर्चे समेत डिगरी हुआ। निर्णायक श्री फणीन्द्र लाल सेन संस्कृतज्ञ सबजज महोदय थे। उस निर्णय की अपील पटना हाई में श्री Ross और श्री Wort दो अंग्रेज जजों के सामने पेश हुई। श्वेताम्बरी संघ की तरफ से श्री भूलाभाई देसाई ने बहस की थी। चरण-चिन्ह के विषय में हमारी जीत हुई। ___ मैंने 7 वर्ष तक 1923 से 1930 तक तीर्थक्षेत्र कमेटी का काम किया। 46000 रुपए मेरे नाम से तीर्थक्षेत्र कमेटी की बही में दानखाते जमा हैं। कर्तव्य पालक : बैरिस्टर चम्पतराय जैन
बैरिस्टर चम्पतराय जैन अपने धर्म के प्रति पूर्णत: समर्पित थे। तीर्थ स्थान को वह पवित्र भूमि मानते थे। उनका मत था, जो भी जिनेन्द्र भक्त है वह तीर्थवन्दना करने का अधिकारी है। उन्होंने प्रयत्न किया कि तीर्थों के मुकदमे
जो दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में चल रहे हैं, आपस में तय हो जायें। किन्तु भवितव्य ऐसा न था। आखिर दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर से उन्होंने निःशुल्क शिखरजी केस-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ केस आदि मुकदमों की पैरवी की-स्वतः अपना खर्च करके प्रिवी कौंसिल में अपील की पैरवी करने गये। उन्हीं की दलील को कि यह पवित्र तीर्थ किसी की निजी सम्पत्ति नहीं हैं-ये % %%%%%%%%%% %%%%%%%% % %%