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आदर्श मुनि
जैन परम्परा में निर्ग्रन्थ मुनि को परम आराध्य, आदर्श एवं परमेष्ठी स्वरूप निरूपित किया गया है। आचार्य समन्तभद्र ने विषय आशा रहित, आरम्भ परिग्रह रहित एवं ज्ञान, ध्यान, तप में लीन साधु को प्रशंसनीय कहा है -
विषयाशा वशातीतो निरारम्भो परिग्रहः। ज्ञानध्यान तपो रक्तः तपस्वी स प्रशस्यते।।
-10.2.क. श्रावकाचार साधु परमेष्ठी आदर्श स्वरूप है। 'आदर्श' दर्पण को कहा जाता है और दर्पण में किंचित मात्र भी रजकण वस्तु के यथार्थ प्रतिबिम्ब को बिम्बित करने में असमर्थ रहता है। उसी तरह मुनि यदि लोकैषणा के प्रति आकृष्ट हो तो वह आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती। आचार्य अमितगति ने योगसार प्राभृत में स्पष्ट लिखा है -
भवाऽभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा वशीकृताः। कुर्वन्तोऽपि परं धर्म लोकपंक्तिकृतादराः ।।
-18, योगसारप्राभृत कुछ मुनि परमधर्म का अनुष्ठान करते हुए भी भवाभिनन्दी (संसार का अभिनन्दन करने वाले) संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह) के वशीभूत हैं और लोकपंक्ति में आदर रखते हैं अर्थात् लोकरंजन में रुचि रखते हुए प्रवृत्त होते हैं।
ऐसे मुनि परमेष्ठी आदर्श स्वरूप कैसे हो सकते हैं यह आगम के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय है।