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अनेकान्त/53-2 %%% %% %%% %% %%%% %%%% %%% की अवरभाग पर वस्त्र सहित जो खड्गासन प्रतिमा मिली है वह ईसा की पांचवीं शताब्दी के अतिम काल की मानी गयी है जो कि बल्लभी में हुए अंतिम अधिवेशन (वाचना) का समय भी है। इससे पता चलता है कि बल्लभी के इस अंतिम अधिवेशन से ही श्वेताम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ।"
(एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका खण्ड-10 पृष्ठ 11 सन् 1987) दिगम्बर जैन समाज सदैव ही असंगठित-सा रहा है। अपने तीर्थो के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा तो रही, किन्तु संगठन और धनाभाव के कारण उनके विकास और व्यवस्था के प्रति कुछ उदासीन भी रहा। ठीक इसके विपरीत मूर्तिपूजक श्वेताम्बर संगठित और धनाढ्य रहा। इसी का लाभ उठाकर उन्होंने प्राचीन तीर्थों पर अपना कब्जा करने की कटनीति अपनाई। इसी नीति के अंतर्गत उन्होंने शिखरजी को अपना साबित करने के लिए कई चालें चली। अकबर के फरमान के आधार पर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न किया, किन्तु पटना हाईकोर्ट ने फरमान को जाली करार दिया। राजा पालगंज से खरीदारी के आधार पर तीर्थ को अपना बताया। पर्वतराज के बिहार सरकार में निहित हो जाने से यह चाल भी नहीं चल पाई। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट की नज़ीर है कि मंदिर-पूजा स्थल बेचे और खरीदे नहीं जाते। अंततोगत्वा प्रिवीकोंसिल ने सभी प्राचीन टोंको में दिगम्बरी आम्नाय के चरण-चिन्ह प्रतिष्ठित होने की पुष्टि की। इस सब के बावजूद मूर्तिपूजक श्वेताम्बरों ने अन्य कई प्रकार के हथकण्डे अपना कर तीर्थराज पर अपना आधिपत्य जमाने और दिगम्बरों को हटाने का अभियान जारी रखा। ऐसे संकट-काल में संगठन का अभाव होते हुए दिगम्बर जैन समाज के कई महानुभाव तीर्थराज की रक्षार्थ व्यक्तिगत रूप में आगे आए और समर्पण भावना से सेवा में जुट पड़े। इनमें सहारनपुर के सेठ जम्बूप्रसाद का नाम उल्लेखनीय है। सेठ जम्बूप्रसाद जैन का अद्भुत त्याग
प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कनैहिया लाल मिश्र 'प्रभाकर' के अनुसार राजा ने सम्मेद शिखरजी का तीर्थ श्वेताम्बर समाज को बेच दिया था उससे तीन प्रश्न उभर आये थे। श्वेताम्बरों का आग्रह था कि हम दिगम्बरों को इस तीर्थ की यात्रा न करने देंगे। यह दिगम्बरियों का घोर अपमान था, यह पहला $ %%%%%%% %%%% %%%%% %%%%