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अनेकान्त/53-2 卐卐卐卐卐
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की और मन्दिर में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा विराजमान करायी। उन्होंने एक
धर्मशाला भी बनवायी। समाज के दो दानी सज्जनों ने दो मन्दिर भी बनवाये । महेन्द्रभूषण के पश्चात् शतेन्द्रभूषण, राजेन्द्र भूषण, शिलेन्द्रभूषण और शतेन्द्रभूषण
भट्टारक क्रम से कोठी के अधिकारी हुए। ये भट्टारक अपने कारकुनों के द्वारा यहां की व्यवस्था कराते थे । कोठी और मन्दिर की अव्यवस्था देखकर भट्टारक राजेन्द्रभूषण ने दिनांक 15.4.1874 को एक इकरारनामा लिखकर आरा के 13 सज्जनों को ट्रस्टी मुकर्रर कर यहां का प्रबन्ध सौंप दिया। काल के प्रभाव से इनमें से 12 ट्रस्टियों का स्वर्गवास हो गया और जो एक ट्रस्टी बच गये थे, वे कोर्ट द्वारा इन्सौल्वैण्ट करार दे दिये गये। मन्दिर में भारी अव्यवस्था हो गयी । तब 21 मई 1903 को भट्टारक शतेन्द्रभूषण ने दूसरा इकरारनामा रजिस्टर्ड कराया। उसके द्वारा आरा के ही 15 राज्जनों को ट्रस्टी बनाया।
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इन इकरारनामों से ज्ञात होता है कि उस समय ग्वालियर गादी के अधीन ग्वालियर, हंडमूरीपुर, भटसूर, सोनागिर, पटना, सम्मेद शिखर, आरा, गिरीडीह आदि कई स्थानों पर मन्दिर और धर्मशालाएं एवं उनकी गादियां थीं। उस समय बीस पंथी कोठी के अधीन सम्मेद शिखर के इन मन्दिर, धर्मशालाओं के अतिरिक्त गिरीडीह का मन्दिर और धर्मशाला भी थी तथा कुकों और वेन्द नामक दो गांव थे । कोठी में हाथी, घोड़े आदि रहते थे ।
कोठी की जायदाद, हिसाब-किताब और इकरारनामे की वैधता को लेकर बम्बई के कुछ भाइयों (भा. दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की ओर से) आरा के इन ट्रस्टियों पर मुकदमा दायर कर दिया। उसमें रांची कोर्ट से दिनांक 11.1.1904 को कोठी पर रिसीवर बैठाने का हुक्म हो गया। फलतः रिसीवर बैठ गया। तब नागपुर
बैठकर आरा और बम्बई वालों में समझौता हुआ और वह सुलहनामा कोर्ट में पेश किया। फलत: दिनांक 9 5.1906 से उसका प्रबन्ध [ मुकदमा नं. 1, सन् 1903 चुन्नीलाल जवेरी वगैरह मुद्दई (वादी) बनाम भट्टारक श्री शतेन्द्रभूषण वगैरह मुद्दालय (प्रतिवादी) बइजलास ज्यूडिशियल कमिश्नर रांची की डिग्री के अनुसार) ट्रस्ट कमेटी के सुपुर्द हुआ और ट्रस्ट कमेटी बाद में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अन्तर्गत कार्य करने लगी।
बीसपन्थी कोठी के लगभग 250 वर्ष बाद श्वेताम्बर कोठी का निर्माण हुआ । उसके लगभग 100 वर्ष बाद तेरापन्थी कोठी बनी ।
'भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ' से साभार