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अनेकान्त/53-2.. %%% %%%% %%% % % %%%%%%%%% % है। इस मान्यता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भक्त श्रावकों ने उन स्थानों पर तीर्थंकरों के चरण स्थापित किये। महामात्य नानू ने जिन मन्दिरों का निर्माण किया था, वे पुराने जीर्ण मन्दिरों के स्थान पर ही बनाये गये थे। (यहां मन्दिरों का अर्थ टोंकें हैं।)
मन्त्रिवर नानू द्वारा बनायी गयी वे ही टोंकें अब तक वहां विद्यमान हैं।
मन्त्रिवर नानू के पहले यहां मन्दिर और मृतियां थीं, इस प्रकार के उल्लेख हमें कई ग्रन्थों में मिलते हैं। तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् यति मदनकीर्ति, जो पं. आशाधर जी के प्रायः समकालीन थे, ने 'शासन चतुस्त्रिंशिका' में उल्लेख किया है।
सौधर्म इन्द्र ने बीस तीर्थकरों की प्रतिमाएं जहां प्रतिष्ठित की हैं, तथा जो प्रतिमाएं अपने आकार की प्रभा से तुलना रहित हैं, उस सम्मेद रूपी वृक्ष पर भव्य जन कष्ट उठाकर भी सीढ़ियों द्वारा चढ़कर पुण्योदय से उन प्रतिमाओं की वन्दना करते हैं। भव्य के अतिरिक्त उनके दर्शन अन्य कोई नहीं कर सकता। यह दिगम्बर-धर्म शाश्वत है अर्थात् यहां सदा से रहा है।
यति जी ने सम्मेद शिखर के सम्बन्ध में जो वर्णन किया है, उसमें तीन बातों का उल्लेख किया गया है-(1) इस क्षेत्र पर सौधर्म इन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापित की थी। (2) उन प्रतिमाओं का प्रभामण्डल प्रतिमाओं के आकार का था, इसलिए उनकी ओर देखने के लिए श्रद्धा की आंखें ही समर्थ होती थीं। जिनके हृदय में श्रद्धा नहीं होती थी, वे इन प्रभा-पुंज स्वरूप प्रतिमाओं को देख नहीं सकते थे। (3) यति जी के काल तक अर्थात तेरहवीं शताब्दी तक इस तीर्थराज पर दिगम्बर समाज का ही आधिपत्य था।
यतिवर्य मदनकीर्ति के काल में सम्मेद शिखर पर एक अमृतवापिका भी थी, जिसमें भक्त लोग अष्ट द्रव्यों (जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप
और फल) से बीस तीर्थंकरों के लिए अर्घ्य चढ़ाते थे। प्राचीन काल में सम्मेदगिरि की यात्रा के विवरण
भक्तजन अत्यन्त प्राचीन काल से ही सिद्धक्षेत्र सम्मेदगिरि की पुण्य-प्रदायिनी यात्रा के लिए जाते रहे हैं। इन यात्राओं के विवरण पुराण ग्रन्थों, कथाकोषों और विविध भाषाओं में निबद्ध यात्रा-विवरण-काव्यों तथा ग्रन्थ-प्रशस्तियों में मिलते हैं। %%%%% %%%%% %%%%%%%% %% %%% %