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अनेकान्त/३२
जबकि आकाश सर्वत्र विद्यमान है। इसी प्रकार आकाश के रहने पर भी धर्माधर्म के होने पर ही जीव एवं पुद्गल की गति एवं स्थिति होती हैं यदि आकाश को निमित्त माना जावे तो मछली की गति पृथिवी पर भी होना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए धर्म एवं अधर्म ही गति-स्थिति में निमित्त हैं, आकाश नहीं। पञ्चास्तिकाय में भी कहा गया है कि यदि आकाश ही अवकाश हेतु के समान गतिस्थिति हेतु भी हो तो ऊर्ध्वगति प्रधान सिद्ध लोकान्त में क्यों स्थित हों? यतः जिनवरों ने सिद्धों की स्थिति लोक के शिखर पर कही है, इसलिए गति-स्थिति हेतुत्व आकाश में नहीं होता। यदि आकाश जीव एवं पुद्गलों की गति हेतु एवं स्थिति हेतु हो तो अलोक की हानि तथा लोक की वृद्धि का प्रसंग उपस्थित हो जावेगा। इसलिए गति और स्थिति के कारण धर्म एवं अधर्म हैं, आकाश नहीं है-ऐसा जिनवरों ने लोक स्वभाव के श्रोताओं से कहा है।
प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न होने से भी धर्म-अधर्म की असिद्धि नहीं है। क्योंकि दार्शनिकों ने पदार्थों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उभयविध स्वीकार किया है। अनुपलब्धि जैनों के लिए कोई हेतु भी नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञदेव ने धर्मादिक द्रव्यों को सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र से प्रत्यक्ष जाना है और उनके उपदेश से श्रुतज्ञानियों ने भी जाना है। धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव मानने पर लोकालोक के विभाग का प्रसंग प्राप्त होता है।” यद्यपि धर्म एवं अधर्म द्रव्य समान बलशाली है तथापि धर्म द्रव्य से स्थिति का तथा अधर्म द्रव्य से गति का प्रतिबन्ध नहीं होता है, क्योंकि ये प्रेरक निमित्त नहीं हैं मात्र साधारण उदासीन निमित्त हैं। धर्मास्तिकाय अगुरुगुरु गुण रूप सदैव परिणमित होता है, नित्य है तथा गतिक्रिया युक्त द्रव्यों की क्रिया में निमित्तभूत है और स्वयं अकार्य है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी है। वह स्थिति में निमित्तभूत है।"
धर्म एवं अधर्म द्रव्य दोनों सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं।२० घर में जिस
14. द्रष्टव्य-राजवार्तिक 5/17. 15. पञ्चास्तिकाय, 92-95. 16. सर्वार्थसिद्धि, 5/17 17. वही, 10/8. 18. सर्वार्थसिद्धि, 5/17. 19. पञ्चास्तिकाय, 84, 86.