________________
कान्त/53-2
%%%%%%%%% % %%% % विश्रुत है। आज भी सम्पूर्ण भारत में उत्खनन से प्राप्त मूर्तियों में पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं बहुतायत से मिलती हैं। भगवान पार्श्वनाथ संकटमोचक और विघ्नहर्ता के रूप में भी श्रावकों के आराध्य हैं। आराधना, स्तुति, भजन, कीर्तन तीर्थंकर के गुणानुवाद का एक सशक्त माध्यम है। 'गुणेषु अनुरागः भक्निः ' गुणों के प्रति अनुराग ही भक्ति है और निष्काम भक्ति के माध्यम से ही निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। बोधि-समाधि निर्वाण के लिए और शुभोपयोग के लिए भक्ति ही एकमात्र सम्बल है।
छद्मस्थ श्रावक का उपयोग भी इस पूर्ण भक्ति में रमता है। विषय-कषायों की आत्यन्तिक निवृत्ति वीतरागत्भाव से होती है और उस वीतराग भाव की प्राप्ति के निमित्त तीर्थ-वन्दना और तीर्थ-भक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति पायी जाती है। आ० समन्तभद्र आदि प्रमुख आचार्यों ने भी भक्ति पूर्ण स्तुति के माध्यम से उपयोग में स्थिरता प्राप्त की थी। आ० समन्तभद्र और आ० मानतुंग की भक्ति से क्रमश: भस्म व्याधिरोग का शमन होना और तालों का टूटना सुविदित है। कविवर द्यानतराय जी ने सम्मेद शिखर की वन्दना और माहात्म्य को जिस बहुमान के साथ रेखांकित किया है, वह अनुकरणीय है। आज भी इस सिद्धक्षेत्र के प्रति जो अनुराग "भक्ति और समर्पण की भावना है वह सिद्धभूमि से आत्मकल्याण की भावना को दृढ़ करने के लिए ही है। अधुनातन स्वर लहरियों में भजन, पूजन-कीर्तन आदि का प्रायः अभाव-सा था जिसकी पूर्ति का एक स्तुत्य प्रयास श्री सुभाष जैन (शकुन प्रकाशन) ने किया है। विश्वास है कि इस भक्ति पूर्ण संरचना से साधर्मी जन लाभ लेकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त होंगे। इसी भावना से अनेकान्त का यह अंक सम्मेद शिखर अंक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है।
-सम्पादक
%
%%%%%%%%%%
%%
%%%%%%%%