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अनेकान्त/53-2 %% %% %% %% %% % %% %%%% %% %%
जयमाल सुरगण रजकण पूजते, है यह शिखर विशाल। शुद्ध मन, वचतन, भाव से, अब गाऊं जयमाल॥
जय सम्मेद शिखर की जय हो।
दुखहारी गिरिवर की जय हो ।। -1 ऐसी शांति कहां है जग में। ना धरती पर नाहिं सुरग में ॥ दिशि-दिशि गूंजें भजनावलियाँ। खिल जायें अन्तर की कलियाँ।।
खुल जायें सब चक्षु ज्ञान के। जिनवाणी का तथ्य जान के॥ जिनवाणी जिसने दुहराई। मर्म बताया, कही सचाई ।। ऐसे गुरु गणधर की जय हो। जय सम्मेद शिखर की जय हो। दुखहारी गिरिवर की जय हो। जय सम्मेद शिखर की जय हो।।-2 यह अनादि से मोक्ष-द्वार है। इस पर्वत को नमस्कार है। काटे जन्म-मरण के बंधन। तन के बंधन, मन के बंधन ।। इन शिखरों से सब तीर्थंकर। महाव्रती तपलीन मुनीश्वर ॥ मुक्ति-मार्ग पर हुए अग्रसर। सिद्ध हुए वे कर्म खपा कर ।। तीर्थकर-मुनिवर की जय हो। जय सम्मेद शिखर की जय हो। दुखहारी गिरिवर की जय हो। जय सम्मेद शिखर की जय हो।।-3 इस शाश्वत सम्मेद शिखर पर । स्वर्गलोक का वैभव तज कर ।। नित-नित देव-समूह उतरता। जिनके मुख से अमृत झरता। प्राप्त उन्हें सब सुख के साधन। फिर भी करते जिन-आराधन ॥ सब टोको पर करके पूजन। धन्य- धन्य हो जाते सुरगण ।। पूजा के हर स्वर की जय हो। जय सम्मेद शिखर की जय हो। दुखहारी गिरिवर की जय हो। जय सम्मेद शिखर की जय हो।-4 सिद्ध-पदों के सर अभिलाषी। जिनकी चिर आकांक्षा प्यासी। अपनी ही तृष्णा से दुर्बल। तप-संयम पालन में असफल ।।
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