________________
अनेकान्त/३६
आदि में आया है। जिसमें जैनधर्म को श्रेष्ठ मानते हुए सनातन माना है।
नगर पुराण में कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने का जो फल है कलयुग में एक अर्हन्त भक्त मुनि को भोजन कराने का है। वेदों में भी 24 तीर्थकरों का स्तवन किया गया है। (यजुर्वेद अ. 25 म. 16-91- अ. 6 वर्ग) में उल्लेख है जिसमें ऋषभेदव सुपार्श्वनाथ अरिष्टनेमि एवं वर्द्धमान चार तीर्थकरों का स्तवन किया गया है। “ओम ऋषभ पवित्रं पुरू हुतमः ध्वज्ञ यज्ञेशु नग्नपरम् माह संस्तुतवरं शत्रु जयन्तं पशुरिन्द्र माहतिरित स्वाहाः ओम् त्रातार मिन्द्र हवे शक मज्जितं तद वर्द्धमान पुरूहितन्द्र माहरिति स्वाहा शान्त्यर्थ मनु विधियते सो स्माक अरिष्ट नेमि स्वाहाः।
ऋषभदेव को हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ एवं उनके भाई श्रेयांस द्वारा प्रथम आहार में ईख का रस देने पर इनके वंश को इक्षाकुवंश कहा गया तथा भरत के पुत्र अर्ककीर्ति के नाम पर सूर्यवंश चला। इसके बाद लगभग 15 पीढ़ी बाद राजा रघु इसी वंश में हुए जो महान् पराक्रमी थे इनके नाम पर रघुवंश पड़ा। इस समय भगवान अजितनाथ तीर्थकर का काल-चक्र चल रहा था।
नाभिराय ऋषभनाथ के एवं भरतचक्रवर्ती के संबंध में हिन्दू शास्त्रो के प्रमाण जिनमें जैन धर्म की प्राचीनता एवं इन्हीं भरत के नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ना और उनका चक्रवर्ती होना प्रमाणित होता है
नाभिस्त्व जनयत्पुत्र मरुदेव्यां महाद्युतिः, ऋषभ पार्थिव श्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीर पुत्रं शताग्रजः सो अभिषिच्य भरतं पुत्र प्राव्राज्यमास्थितः हिमाद् दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवदेयत् तस्माद् भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुवुधाः।
-वायुपुराण पू. अ 33 "ज्ञान वैराग्यमाश्रित्य जितेन्द्रियः महोरगान सर्वात्मनात्मनि स्थाप्य परमात्मा नमीश्वरम् नग्नो नटो निराहारो चोरी ध्यान्तगतो हि सः निराशस्त्यक्तसन्देहः शवमाप परं पदम् हिमान्द्रं दक्षिणं वर्ष भारताय न्यवेदयत् तस्मात् भारतं वष तम्य नाम्ना विदूर्वधाः।
लिंग पुराण अ. 47