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अनेकान्त/३८
ऋग्वेद में ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि की स्तुति की गई। नेपाल का प्राचीन इतिहास जैनिज्म इन विहार पृष्ठ-7 जैन धर्म की प्राचीनता को स्वीकारता है। बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी जैन धर्म के संबंध में उल्लेख हैं।
इतिहास में तीन भरतों का उल्लेख आया है। 1. ऋषभेदव के पुत्र भरत जो सूर्यवंशी थे जैनधर्म के उपासक और चक्रवर्ती
हुए। ये ऋषभदेव के काल में हुए। वैदिक शास्त्र के अनुसार सतयुग था। 2. दशरथ पुत्र भरत ये भी सूर्यवंशी थे जैनधर्म के उपासक थे और राम
के प्रतिनिधि के रूप में शासक रहे। ये मुनिसुव्रत नाथ के काल में हुए।
वैदिक शास्त्रों के अनुसार यह काल त्रेता युग था। 3. दुष्यन्तपुत्र भरत ये चन्द्रवंशी थे। वैदिक शास्त्रों के अनुसार द्वापुर युग था।
चन्द्रवंशी भारत में इलावृत से आये, प्रथम इलावर्ती राजा पुरूरवा आया इनका कुल एल कहलाया। उसकी इक्कतीसवीं पीढ़ी में दुष्यन्त पुत्र भरत हुए जिसका जन्म पुरूरवा के भारत आने के लगभग 1500 वर्ष बाद हुआ। पुरूरवा जिस समय यहां आया इस देश का नाम भारतवर्ष था। इससे सिद्ध होता है कि ऋषभ का स्पष्ट सम्बन्ध सूर्यवंशी ऋषभ के पुत्र भरत से है। ___ "उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमवद दक्षिणे च यत्। वर्षं तद् भारतं नाम यत्रेयं भारती प्रजा।। वायु पुराण में अ.-45-75, 33/52 भरतः आदित्यस्तस्य भा भारती
इन्हीं भरत को योगी ऋषभेदव तीर्थकर के पुत्र चक्रवर्ती को श्रमण संस्कृति का उपासक माना है। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि जैनधर्म एवं श्रमण संस्कृति अनादि निधन एवं प्राचीन है।
इन्हीं भगवान् ऋषभेदव के पुत्र भरत चक्रवर्ती का पुत्र जो पूर्व पर्याय में पुरूरवा भील था, जिसने जैन मुनि से मांस-मधु न खाने का व्रत लिया था तथा सल्लेखना धारण कर शरीर त्यागने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती का पुत्र मारीच हुआ
और उन्होंने अपने बाबा ऋषभदेव से कक्ष महाकक्ष आदि राजा-महाराजों के साथ दीक्षा ली, मगर भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी की वेदना को सहन नहीं कर सका। अतः पथभ्रष्ट हो गया और अपने बाबा की पूज्यता की भावना से त्रस्त हो 363 अन्य मत प्रचलित किये। इसके बाद अनन्त भवों को त्यागकर अणुव्रत धारण कर सम्यक्त्वपूर्वक सल्लेखना धारण कर शरीर छोड़ा। इसके बाद सम्यक्त्व के प्रभाव से दसवें भव में चैत्रशुक्ला तेरस विहार प्रान्त के वैशाली नगर के कुण्डलपुर ग्राम में राजा सिद्धार्थ