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अनेकान्त / ३०
हैं, तथापि वे अकिंचित्कर नहीं है। अपितु दोनों की कथंचित् प्रधानता भी स्वीकार की गई है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि यदि मुक्त जीव ऊर्ध्व गति स्वभाव वाला है तो लोकान्त से ऊपर क्यों गमन नहीं करता है? वे समाधान करते हैं कि गति रूप उपकार का कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्त के ऊपर नहीं है, इसलिए अलोकाश में गमन नहीं होता है और यदि अलोक में गमन माना जाता है तो लोकाकाश एवं लोकाकाश का विभाजन ही नहीं बन सकता है।' राजवार्तिक, पञ्चास्तिकायटीका आदि में भी इसी प्रकार का कथन किया गया है। भगवती आराधना में कहा गया है कि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से सिद्ध भगवान् लोक से ऊपर नहीं जाते हैं । इसलिए धर्म द्रव्य ही जीव एवं पुद्गल की गति को करता है । अधर्म द्रव्य के निमित्त से ही सिद्ध भगवान् लोकाग्र पर अनन्तकाल निश्चल ठहरते हैं। इसलिए अधर्म द्रव्य ही जीव एवं पुद्गलों की स्थिति का कर्त्ता है ।
धर्म और अधर्म द्रव्य के कारण ही लोकालोक की व्यवस्था बनी है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने कहा भी है कि यह लोकालोक का विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से समझना चाहिए । अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं, वहाँ तक लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है। यदि धर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलों की गति के नियम का हेतु न रहने से लोकालोक का विभाग नहीं बनता है । उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो स्थिति का निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थिति का अभाव हो जाता है, जिससे लोकालोक का विभाग नहीं बनता । इसलिए इन दोनों के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा लोकालोक के विभाग की सिद्धि होती है ।"
जीव और पुद्गल में स्वभाव से गतिस्थिति नहीं है । काल की भाँति सर्वद्रव्य में अपने उपादान कारण एवं सहकारी कारण बनने का सामर्थ्य नहीं है। क्योंकि
7. सर्वार्थसिद्धि 10 / 8
8. धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण ।
गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं ।।
कालमणतम धम्मो पग्गहिदो ठादि गमणमोगाढ़े।
सो उवकारो इट्ठो अठिदि समावेण जीवाणं ।। भगवती आराधना, 2134, 2139.
द्रष्टव्य - सर्वार्थसिद्धि 5 / 12 एवं 10 / 8.
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