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अनेकान्त/३३
प्रकार घट अवस्थित रहता है, उस प्रकार लोकाकाश में धर्म एवं अधर्म द्रव्यों का अवगाह नहीं है, किन्तु जिस प्रकार तिल में तैल रहता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्म एवं अधर्म द्रव्य व्याप्त हैं। धर्म, अधर्म एवं लोकाकाश समान परिमाण वाले तथा अपृथक् भूत हैं तथापि के पृथक-पृथक सत्ताधारी हैं। जिस प्रकार रूप रस आदि में तुल्य देशकाल होने पर भी अपने-अपने विशिष्ट लक्षण से अनेकता है, उसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों में भी लक्षणभेद से अनेकता है। यतः जीव एवं पुद्गल लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं, अतः यह निश्चित है कि उनके उपकारक (उदासीन निमित्त) कारणों को भी सर्वगत ही होना चाहिए। क्योंकि उनके सर्वगत न होने पर उनकी सर्वत्रवृत्ति संभव नहीं है। यही तर्क प्रवचनसार की तत्त्व-प्रदीप टीका में भी दिया गया है। यथा-धर्माधर्मो सर्वत्र लोके तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपद्गलानां लोकाबहिः तदेकदेशे च गमनास्थानासंभवात्। अर्थात् धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोक में हैं, क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है, ऐसे जीव एवं पुद्गल की गति एवं स्थिति लोक से बाहर नहीं होती और न लोक के एक देश में होती है। अतः स्पष्ट है कि धर्म एवं अधर्म दोनों द्रव्य लोकव्यापी हैं, लोक में व्याप्त होते हुए भी पृथक्-पृथक् सत्ताधारी हैं। जीव, पुद्गल की लोक में सत्ता धर्माधर्म के लोकव्यापित्व का हेतु है।
धर्म और अधर्म द्रव्य दोनों एक एक एवं अखण्ड हैं। दोनों अमूर्तिक अजीव तथा असंख्यात प्रदेशी हैं। दोनों क्रमशः गति एवं स्थिति में निमित्त होते हुए भी स्वयं निष्क्रिय हैं। इनके कारण ही अखण्ड आकाश लोक एवं अलोक में विभाजित है।
-दि० जैन हायर सैकेण्ड्री स्कूल
सीकर (राज०)
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20. 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने।' तत्त्वार्थसूत्र 5/13., 21. पञ्चास्तिकाय, 96 22. प्रवचनसार, 136 की तत्त्वप्रदीप टीका।