________________
अनेकान्त/२४
इस तालिका से यह स्पष्ट है कि पहली चार प्रतिमाओं को छोड़ तीनों ही प्रकरणों में अन्य प्रतिमाओं के क्रम में अंतर है। दिगंबर परंपरा में श्रमणभूत प्रतिमा ही नहीं है। इन तीनों क्रमों का विकास-काल अन्वेषणीय है। दिगंबर परंपरा में 'श्रमणभूत' प्रतिमा का विलोपन भी विचारणीय है। श्वेतांबर परंपरा मानती है कि प्रतिमाधारण जीवन के अंतिमभाग (66 माह) में किया जाता है, पर दिगंबर परंपरा इसे कभी भी पालनीय मानती है। प्रतिमा-पालन निरपवाद होता है, व्रत सापवाद भी हो सकते हैं। प्रतिमाओं के क्रम का वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक अध्ययन आवश्यक है। उपसंहार
उपरोक्त सभी प्रकरण जैन आचार एवं विचारों से संबंधित हैं। उनमें पाये जाने वाले क्रम परिवर्तनों पर टीकाकारों या विद्वानों ने विचार किया है, यह देखने में नहीं आया। इसलिये आस्था को बलवती बनाने के लिये इन पर विचार करना आवश्यक है। पिछले लेख (तुलसी प्रज्ञा, 23.4) में इस हेतु ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, बुद्धिवाद का विकास समयानुसारिता, उत्तर-दक्षिण प्रतिपत्ति तथा वैचारिक विकास के चरण के रूप में पांच बिंदु सुझाये गये थे। फिर भी इन प्रकरणों में क्रम-व्यत्यय, नामभेद तथा परिभाषा भेद से यह संकेत तो मिलता ही है कि प्राचीन युग में विचार-संचरण या ग्रंथ संसूचन की अल्पता थी, इसलिये विवरणों में एकरूपता सम्भव नहीं थी, इसलिये क्रम भेद के साथ नामभेद और अर्थभेद भी संभव हुए एवं परस्पर असंगतता-सी आई। श्रद्धावाद के युग में हमने इस असंगतता पर ध्यान ही नहीं दिया। इससे आज के बुद्धिवादी युग में ऊहापोह की स्थिति बनती जा रही है। आज-'सत्य' किमिति सर्वज्ञ एव जानाति अनुयायी बनकर हम अपनी जिज्ञासु वृत्ति को उपशांत बनाये नहीं रख सकते। हमें तो सिद्धसेन और समंतभद्र की 'शास्त्रस्य लक्षणं परीक्षा' की उक्ति का ही अनुसरण करना होगा और उपरोक्त विवरणों की संगतता को प्रतिष्ठित करना होगा। हमें भूतकाल की मनोवैज्ञानिकता से वर्तमान काल में आना होगा। नई सदी सिद्धांत-प्रशंसन की नहीं, सिद्धांत-विश्लेषण की सदी होगी। इस विश्लेषण के
आधार पर ही हम जैन सिद्धांतों पर पश्चिमी विश्लेषकों के अनेक आरोपों को निराकृत कर सकेंगे एवं जैन धर्म की विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा को संबंधित कर सकेंगे।
-जैन केन्द्र, रीवा (म. प्र.)