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अनेकान्त / २७
संगीतमिश्रित नमस्कृत धीर नादेरापूरिततलोरु दिगन्तरालम् ।। माधुर्यवाद्यलय नृत्य विलासिनीनां लीला चलद्वलयनूपुरनाद रम्यम् ।। संक्षेप में यह कि ऐसे जिन भवन को देखा जिसमें भवनवासी आदि देवों के स्वर्ग में विख्यात गणिका - गण का गान हो रहा है, सुर, किन्नर, आदि बंसी और वीणा बजा रहे हैं जिनके संगीतमय धीर नाद से धरती आकाश आपूरित है और जिसमें विलासिनियों के नृत्य के साथ वाद्य, चंचल चूड़ियों और नुपूर की 'मधुर और रम्य झंकार हो रही है। इसकी वजह यह है कि मधुर, लय, ताल और स्वरों की बंदिश में गाया गया रस मय संगीत भक्त जनों का अपूर्व आनन्द, आह्लाद और उल्लास प्रदान करता है और शायद यही वजह हो कि भगवान के समवशरण में एक ओर ऊँ की गंभीर ध्वनि गूंजती है तो दूसरी ओर चारों गोपुर द्वारों में तीन-तीन खण्डों की दो-दो नाट्यशालाओं में नृत्य और संगीत भी चलता रहता हैं।
इसलिए हमारे अर्ध्य पद का सही-सही अर्थ यों होना चाहिए
मैं, धवल और मंगल ( रागों में गाए जा रहे ) गानों की ध्वनि से भरे हुए जिन गृह में जिननाथ की पूजा (ऐसे ) छोटे-छोटे अर्थ्यो से करता हूँ (जिनमें) जल, चन्दन, चावल, छोटे-छोटे फूल, चरु (नैवेद्य) अच्छे दीप, अच्छी धूप और फल हैं।
श्वेताम्बर परम्परा की मंदिर मार्गी शाखा के पूजा संग्रहों में हर पूजा और भजन का छन्द और वह किस राग में गाया जाए सब प्रायः दिया हुआ है। पूजा में अर्घ्य के लिए जिन पदों का प्रयोग किया गया है उनमें से एक इस प्रकार हैसलिल चन्दन पुष्प फल ब्रजैः, सुविमलाक्षत दीप धूपकैः । विविध नव्य मधुर प्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ।।
दोनों की समानता दृष्टव्य है। दोनों में पुष्प, अर्घ्य, धूप और अन्न आदि के अंत में तद्धित प्रत्यय 'क' लगाकर विनम्र भक्तजन अपनी भेंट की लाघवता को प्रदर्शित करते हैं।
काव्य की भाँति संगीत भी मनुष्य को भौतिकता से ऊपर उठाता है इसलिए भजन, पूजा आदि गेय काव्य में निबद्ध किए जाते हैं। वैष्णव, बौद्ध, जोगी, नाथ, सिक्ख सूफी और जैन भक्तों व संतों ने इसका भरपूर उपयोग किया है।
रुखे-सूखे वीतराग भेद विज्ञान में संगीत के राग के पुट आत्मा में अद्भुत, शान्त, भक्ति रस का संचार करते हैं और अन्ततः वीतरागता की ओर ही ले जाते हैं । कविवर इकबाल ने ठीक ही कहा
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शक्ति भी शाँति भी भक्तों के गीत में है धरती के वासियों की मुक्ति पिरीत में है। -215, मंदाकिनी एन्क्लेव अलकनंदा, नई दिल्ली-110019