Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
होतीं, वे अर्थापत्ति-न्याय' से अध्याहृत (आक्षिप्त) की जाती हैं । जैसे किसी को कहा गया---'दही लाओ'। इस आज्ञा में दही के बर्तन को लाने की बात भी अर्थापत्ति से जान ली जाती है । इसी प्रकार मूलसूत्र में न कही गई बातें अर्थापत्ति से जान ली जाती हैं । अथवा शास्त्र में कहीं सूत्रपाठ में अर्थ के एक अंश का ग्रहण है और कहीं समस्त अर्थों का ग्रहण है । अत: जिन पदों द्वारा उन अर्थों (सिद्धांतसम्मत बातों) का प्रतिपादन किया गया है, वे पद अत्यन्त सिद्ध हैं, साध्य नहीं हैं तथा अनादि हैं । इस समय उत्पन्न करने योग्य नहीं है। अतएव यह द्वादशांगी (जिसमें सूत्रकृतांग भी है) शब्द और अर्थ-रचना द्वारा महाविदेह-क्षेत्र में नित्य है तथा भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में भी इसकी शब्द रचना प्रत्येक तीर्थंकर के समय की जाती है । नहीं तो, और तरह से वह नित्य ही है।
इस प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र की रचना किन महापुरुषों द्वारा किन भावों की भूमिका में हुई है, वह हमने संक्षेप में नियुक्तिकार के मतानुसार बता दिया है । सूत्रकृतांग के अध्ययनों और विषयों का परिचय
नियुक्तिकार के ही मतानुसार संक्षेप में सूत्रकृतांग के अध्ययनों का परिचय यों है
दो चेव सुयक्खंधा, अज्झयणाइं च हुंति तेवीसं ।
तेत्तिसुद्दे सणकाला, आयाराओ दुगुणमंगं ॥ इस सूत्रकृतांगसूत्र में दो श्रु तस्कंध हैं. तेईस अध्ययन हैं तथा तेतीस उद्देशनकाल हैं। वे इस प्रकार हैं-प्रथम अध्ययन में चार उद्देश, दूसरे अध्ययन में तीन उद्देश और तीसरे अध्ययन में चार उद्देश हैं। चौथे और पाँचवें अध्ययन में दो-दो उद्देश हैं, शेष ग्यारह अध्ययनों में एक-एक ही उद्देश हैं। यह प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययनों और उद्देशों का परिमाण है। दूसरे श्रुतस्कंध में सात अध्ययन
और सात ही उद्देश हैं । इस प्रकार दोनों श्रु तस्कंधों में कुल मिलाकर २३ अध्ययन हैं । यह सूत्र आचारांगसूत्र से द्विगुण है । इसके पद ३६००० हैं ।
सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रु तस्कंध का नाम 'गाथा-षोडशक' है। इसमें गाथा नामक १६ अध्ययन हैं, इसलिए इसे 'गाथाषोडशक' कहते हैं ।
१. जिसके बिना जिसकी सिद्धि नहीं होती, उससे उसका आक्षेप (अध्याहार) करना
अर्थापत्ति है। २. 'इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ।'
-नंदीसूत्र
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