________________
विचारवंतों के दृष्टि में
सातिशय पुण्यशाली महात्मा पं. तनसुखलालजी काला, मुंबई
स्व. प. पू. चा. च. श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजी महाराज के आदेशानुसार जब हम उनका आशीर्वाद लेकर दि. ५ - १२ - ४९ को स्व. राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसादजी के पास देहली पहुंचे तब स्व. प. पू. आचार्य श्री के प्रति पूर्ण अनुराग एवं भक्ति प्रगट करते हुवे अतीव प्रभाव से प. पू. आचार्य श्री को उन्होंने अपना नमोस्तु निवेदन करने को कहा जो कि समस्त दि. जैन समाज के लिए महान् गौरवास्पद था । स्व. आचार्य श्री की महान् तपश्चर्या तथा पुण्यबल से 'जैनधर्म' प्रचलित हिंदुधर्म से दृष्टि से सर्वथा भिन्न तथा स्वतंत्र धर्म है यह घोषणा स्त्र. पं. जवाहरलालजी नेहरू ने अपने पत्र दि. ३१-१-५० द्वारा प्रगट की । फलस्वरूप दि. २४-७५१ को बम्बई हायकोर्ट ने स्पष्ट जाहिर किया कि जैन संस्कृति और धर्म हिंदु संस्कृति से भिन्न है जिसके लिए स्व. आचार्य श्री ने तीन वर्षतक अन्नत्याग किया और अंत में अपनी अटल प्रतिज्ञा तथा धर्मायतनों पर विजय प्राप्त कर धर्म की महान् रक्षा की।
जिनवाणी की होती हुई अवज्ञा को न सहन कर उन्होंने धवल, जयधवल, महाधवल को ताम्रपत्र पर अंकित कराया तथा जिनवाणी जीर्णोद्धार ग्रंथमाला की नींव सुदृढ बना कर अनेक मौलिक शास्त्रों को समाज में वितरण कर सम्यक्ज्ञान के प्रचार का बडा भारी कार्य किया ।
आज समाज में जो अनेक निग्रंथ दि. साधु ऐल्लक, क्षुल्लक तथा अर्जिकाएँ एवं प्रतिमाधारी त्यागियों का निर्माण होकर उसकी परम्परा चालू है यह सब उन्हीं आचार्य श्री की देन है ।
७५
उनके महान् उपकारों से समाज कभी उऋण नहीं हो सकती । हम अत्यंत नम्र भाव से उनके पुनीत चरणों में अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए भावना करते हैं कि धार्मिक समाज उनके पावन शुभाशीर्वाद से सतत अपने वास्तविक सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त होकर शीघ्र सत्पथगामी वने ।
शांति के दूत
श्री १०८ आचार्य शांतिसागर जी महाराज
गत शताब्दि के वैज्ञानिक तेज विकास में कल्याणकारी मानवीय मूल्यों की द्रुतगति से जो अवि होती गई उनकी पुनः स्थापना करने में जिन जिन महापुरुषों ने प्रामाणिक अथक प्रयास किया तथा विश्व के लिये अपनी जीवनी द्वारा जो मानवता का आदर्श प्रस्थापित कर सके ऐसे महान् तथा चंदनीय पुरुषरत्नों में स्त्र. प. पूज्य १०८ प्रातःस्मरणीय आचार्य शांतिसागरजी थे । वास्तव में आपकी आत्मा महान् पवित्र आत्मा थी । अहिंसा और शांति का पाठ विश्व को आपके द्वारा मिला है ।
कई शताब्दियों के अन्तराल के बाद अंतरंग बहिरंग दिगंबरत्व का यथार्य स्वरूपदर्शन आप में पाकर कृतार्थता होती है । सहज वीतरागता और अमूर्तशांति के मूर्तिमान् दर्शन आपके रूप में पाकर धन्यता होती है ।
आपके चरणों में अनेकशः नमोस्तु विदित होवे ।
Jain Education International
श्री. भरतकुमार तेजपालजी काला, नांदगाव
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org