________________
२७८
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ श्रद्धानरूपं निश्चयसम्यग्दर्शनम् ' अपने आत्मा पर वह ज्ञान दर्शन सुखरूप शुद्ध बनने की पात्रता रखना है ऐसी श्रद्धा रखना उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
ज्ञानं द्वादशाङ्गपरिज्ञानं स्वात्मस्वरूपं वेदनं निश्चयज्ञानं च ।
द्वादशांगोंका आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्गादि अंगों का ज्ञान होना तथा आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होना, आत्मस्वरूप को जानना उसे निश्चय ज्ञान कहते हैं ।
'चारित्रं सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणं, सामायिकादि पंचभेदं पुनः स्वात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयचारित्रं च ।'
। असत्य, चोरी आदि पातकों से निवृत्त होना व्यवहार चारित्र है । तथा इसके सामायिक, छेदोपस्थापनादिक पांच भेद हैं। आत्मानुभव वन में लीन होना निश्चय चारित्र है। इस प्रकार व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति होना क्यों दुर्लभ है इसका विचार किया जाता है
जीवका निगोदादि अवस्थाओं में भ्रमण __ जीव का निगोद में अनन्तकाल तक वास्तव्य हुआ है। निगोदी जीव की आयु श्वास के अठारह भाग होती है इतनी आयु समाप्त होने पर बार बार उसी अवस्था को जीव ने अनन्तानन्त अतीत काल में अनुभूत की है । अर्थात अनन्तानन्त निगोदावस्थाओं का इस जीव ने अनुभव किया है ।
निगोदावस्था से निकल कर पृथ्वीकायादि पंच स्थावर कार्य की अवस्थायें इस जीव ने धारण की थी और उनमें भी इसने असंख्यात वर्षों का काल बिताया है। इस पंच स्थावर कायिक के बादर स्थावर कायिक तथा सूक्ष्म स्थावर कायिक जीव ऐसे दो भेद हैं, और इन अवस्था में भी इस जीव ने असंख्यात वर्षों का काल बिताया है । इस जीव को द्वीन्द्रियादि विकलत्रय अवस्था चिंतामणि रत्नके समान दुर्लभ हुई थी। इन विकल त्रयावस्थाओं में भी इस जीव ने अनेक पूर्व कोटि वर्षांतक भ्रमण किया है।
तदनन्तर असंज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था प्राप्त हुई थी इस अवस्था में अपना और परका स्वरूप इसे मालूम होता नहीं । कदाचित संज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था भी प्राप्त हुई तो यदि सिंहादि क्रूर पशुओं की प्राप्त हुई तो उसे अशुभकर्म बंध होने से मरणोत्तर दीर्घ काल तक नरक दुःख सहन करने पडते हैं।
जहां लोगों का हमेशा आना जाना होता है ऐसे स्थान पर अपना रत्न गिर जाने पर उसकी प्राप्ति होना नितरां दुर्लभ है वैसे मनुष्य जन्म प्राप्त होना दुर्लभ है । उसकी प्राप्ति होने पर भी यदि मिथ्यात्व अवस्था में अनेक पाप कार्य उससे किये गये तो फिर नरकादि दुर्गतियों में भ्रमण करना पडता है ।
आर्यखण्ड में तथा उच्च कुल में भी जन्म प्राप्त होकर मूकादि अवस्था प्राप्त होने से आत्महित नहीं हो सकता। निरोगता, दीर्घायुष्य, अव्यङ्गतादि प्राप्त होकर भी शीलव्रत पालन, साधुसंगति आदिक प्राप्त होना दुर्लभ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org