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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ प्रयोजन समझना। उनके शब्द प्रयोग से वह जीव का परमार्थ स्वरूप नहीं समझना । यह व्यवहारनय का निश्चयनयानुकूल एक ही अभिप्राय होने से दोनों नयों में परस्पर विरोध नहीं है ।
दोनों नयों का अभिप्राय समझ कर दोनों नयों का यथार्थ अर्थ समझनाही दोनों नयों का सम्यग्ज्ञान है । वह अनेकांत प्रमाण जैनशासन है।
दोनों नयों को एक कोटि में रखकर दोनों नयों को परमार्थ समझना, व्यवहारनय से जो कहा उसको भी जीव का परमार्थ स्वरूप समझना, और निश्चयनय से जो कहा वह भी वस्तु का परमार्थ स्वरूप है, इस प्रकार दोनों नयों को परमार्थ समझना यह सम्यक् अनेकांत नहीं है । वह अनेकांताभास है।
वस्तु का परमार्थ स्वरूप एकही होता है । यद्यपि वस्तु के अंग दो होते हैं। (१) अंतरंग, (२) बहिरंग तथापि दोनों वस्तु के परमार्थ स्वरूप नहीं है। जो वस्तु का अंतरंग स्वरूप होता है वही वस्तु का ध्रुव स्वरूप होने से परमार्थ है।
जो वस्तु का बहिरंग रूप होता है वह वस्तु ने तावत्काल धारण किया हुआ उसका रूप है, उसका ध्रुव स्वरूप नहीं है। वह उसका विभावरूप है । उस विभावरूप से जीव का कथन किया इसलिये उस विभाव को वस्तु का परमार्थ स्वरूप नहीं समझना । कहने और समझने में अंतर है ।
घडे को घी का कहने में विरोध नहीं है। लेकिन जैसा कहा वैसा यदि उसको घी का ही समझे तो उसको घी का घडा कहां भी मिलना असंभव है।
'व्यवहारः वक्तव्यः न तु परमार्थेन अनुसर्तव्यः।' व्यवहार यह केवल वक्तव्यमात्र है, वह स्वयं परमार्थ नहीं है। लेकिन परमार्थ का सूचक होने से वक्तव्यमात्र है। व्यवहार आश्रय करने के लिये योग्य नहीं है। केवल निश्चयनय ही आश्रय करने योग्य है। क्योंकि निश्चयनय परमार्थ भतार्थ है । वस्तु का जो मूल परमार्थ ध्रुव स्वरूप है उसको निश्चयनय बतलाता है।
___यद्यपि दोनों नय वस्तु का स्वरूप और विरूप समझने में साधक है। समझने के बाद वस्तुस्वरूप का निर्विकल्प अनुभव करते समय दोनों नयों का पक्षपात छूट जाता है तथापि जिस प्रकार व्यवहारनय के विषय की-उपाधि की—विकार की वस्तु स्वरूप में नास्ति है उस प्रकार निश्चयनय के विषय की नास्ति नहीं है। केवल निश्चयनय का पक्षपात छूटता है । तथापि निश्चयनय के विषय का अवलंबन नहीं छूटता । क्योंकि निश्चयनय का अवलंबन विषय ध्रुवस्वभाव है। उसके अवलंबन विना निर्विकल्प अनुभूति नहीं होती है।
सारांश निश्चय और व्यवहार का यथार्थ अभिप्राय जानना ही सम्यक्ज्ञान है। निश्चयनय का जो कथन है वही वस्तु का परमार्थ ध्रुव स्वरूप है उसका अवलंबन उपादेय है। तथा व्यवहारनय का जो कथन है वह वस्तु का बहिरंग पर्याय का कथन है वह परमार्थस्वरूप नहीं है ऐसा जो समीचीन ज्ञान यही दोनों नयों का सम्यक्ज्ञान है।
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