Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 536
________________ तत्त्वसार ३३१ जीवों के लिए पुराण पुरुषों के अनेकों महान् चरित्र अर्थात् प्रथमानुयोग के उत्तमोत्तम ग्रन्थ, द्रव्यसंग्रह, छहढाला, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, इष्टोपदेश, समाधितंत्रादि ग्रन्थ जिज्ञासा - शमन - योग्य हो सकेंगे। आवश्यक प्रारंभिक जिज्ञासा शमन के पश्चात आगे बढने के लिए उत्सुक जनों के परमावश्यक है । आगे बढनेवाले श्रेष्ठ जनों के लिए प्रकृत ' तत्त्वसार' ग्रन्थ महान् आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक और अखंड तथा अनंत शुद्ध चिदानंद की उपलब्धि का रहस्योद्घाटक एक महान् ग्रन्थ है इसमें कोई सन्देह नहीं । जीवन्मुक्त बन जाने की सच्ची इच्छा करनेवाले महात्मा इस 'तत्त्वसार ' ग्रन्थ के वास्तव मनन से जीवनमुक्त बन सकेंगे आगे चलकर पूर्ण मुक्त भी बन सकेंगे । ग्रंथ- परिचय " तत्त्वसार ग्रंथ नाम -- ग्रंथ का नाम ग्रंथकार ने स्वयं ही ' तत्त्वसार' ( सुतत्त्वसार ? ) प्रकट किया है । ग्रंथ का साधन्त रसास्वाद लेने पर ग्रंथ का नाम बिल्कुल अन्वर्थक प्रतीत होता है । एक विचारणीय बात है कि मंगलाचरण की प्रथम गाथा में ही ग्रंथकार ने “ सुतच्चसारं पवोच्छामि । " ऐसा लिखा है अर्थात सुतत्त्वसार को कहता हूँ ऐसा अपना अभिप्राय व्यक्त किया है । अतः ग्रंथनाम ' तत्त्वसार' न होकर ग्रंथकार के ही शब्दों में 'सुतत्त्वसार' होना चाहिए। ब्र. शीतलप्रसादजी ने अपनी टीका में 'सु' विशेषण को ' शब्द का विशेषण न मान कर ' कहता हूँ' इस क्रिया का विशेषण मान कर अर्थ किया है अर्थात 'सु पवोच्छामि' याने ' उत्कृष्ट रूपेन कहता हूँ' । ग्रंथकार ने पूरे ग्रंथ में ग्रंथ नाम का दो बार उल्लेख किया है । सर्वप्रथम मंगलाचरण गाथा में और सर्वान्त में उपसंहारस्वरूप गाथा में । हाँ विशेष यह है कि प्रथम गाथा में 'सुतच्चसारं ' शब्द है और अंतिम गाथा में मात्र ' तच्चसारं ' शब्द है । वैसे , तत्त्वसार नाम अधिक रूढ है ही । प्रकृत लेख में ' तत्त्वसार' इस बहुरूढ नाम का ही उपयोग किया गया है । तत्त्वसार यह सामासिक पद है । इसमें दो शब्द हैं, (१) तत्त्व और (२) सार । दोनों शब्दों के समास से तत्त्व + सारतत्त्वसार यह शब्द बना है । 'तत्त्व' यह शब्द तत् + त्व इन दो पदों के संयोग से बना हुआ है । ' तत् ' याने ' वह ' - अर्थात वस्तु और 'त्व' प्रत्यय का अर्थ है भाव। इस प्रकार " 'तत्त्व' वस्तु का स्वभाव ऐसा अर्थ व्यक्त होता है । तत्त्व शब्द की निरुक्ति ' तस्य भावस्तत्त्वम् ' इस तरह की गई है अर्थात ' तस्य ' उसका ' भाव: ' अर्थात सो ' तत्त्वम् ' तत्त्व है । प्रतिपाद्य विषय जो भी होगा उसका भाव उस नामवाले तत्त्व के अन्तर्गत आवेगा । जैसे-यदि प्रतिपाद्य विषय ' संवर ' है तो संवर के बारे में जो विचार या वर्णन होगा सो सब ' संवर' नामक तत्त्व के अन्तर्गत होगा । दूसरा शब्द है 'सार' सार शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं यथा शुद्ध, मर्म, महत्त्वपूर्ण, तात्पर्य, आदि । प्रकृत में मर्म अथवा शुद्ध ये अर्थ मुख्यरूपेण ग्रहण किये जा सकते हैं । तत्त्वसार शब्द से तत्त्वों का मर्म या तत्त्वों का निचोड अथवा शुद्ध तत्त्व यह अर्थ होता है । मौलिक ग्रंथ में वास्तव में तत्त्वों का निचोड, मार्मिक तत्त्व रहस्योद्घाटन है । अध्यात्म रसिकों के संमुख शुद्ध तत्त्व का यथार्थ चित्रण है, जिस से ग्रंथ के लिए ' तत्त्वसार ' यह नाम गौरवशाली नाम यथार्थ है । 6 Jain Education International ܕ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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