Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

Previous | Next

Page 548
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३४३ है। ऐसी व्यवस्था में वह पापाचरण ही को अपना शत्रु मानता है। रत्नत्रयरूप आत्मपरिणति ही सच्चा बन्धु है। श्रावकों के लिए ( उपासकों के लिए ) आचार विषयक ग्रन्थों में सर्वप्रथम प्राचीन ग्रन्थ के रूप में रत्नकरण्ड की निःसंशय ऊँची है और प्रमाणभूत है। उपसंहार-आचार्यश्री समंतभद्र ने जिस कालखण्ड में यह ग्रन्थ लिखा वह दार्शनिकों के विवाद का काल था ( भिन्न भिन्न दार्शनिक अपने अपने मतका समर्थन बडे जोर से कर रहे थे। ऐसे बिकट समय में सर्वसाधारण जीव भी धर्म का सच्चा स्वरूप जाने, धार्मिक समाज का विघटन न हो यह)। विद्वज्जन अपने कथन का समर्थन इन्हीं श्लोकों को मूलभूत आधार मानकर करते आये हैं। इसपर श्री आचार्य प्रभाचन्द्र ने संस्कृत टीका लिखी है, पं. सदासुखजी ने हिंदी भाषा में विस्तृत टीका लिखकर सामान्य जनता में उसे प्रसारित किया है, इसी हिंदी टीका का ब्र. श्री जीवराजजी गौतमचंद दोशी ने अनुवाद कर मराठी अनुवाद करके आम जनता को स्वाध्याय का सुवर्ण क्षण उपलब्ध कर दिया है । उस ही का स्वाध्याय करके यह लघुकाय प्रबन्ध लिखा है । प्रबन्ध पढकर सामान्य जनता मूल ग्रन्थ के स्वाध्याय की ओर और प्रवृत्त हो ऐसी आशा है । इत्यलम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566