Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 554
________________ ३४९ आयुर्वेद जगत् में जैनाचार्यों का कार्य सर्वार्धाधिक मागधीय विलसद्भाषाविशेषोज्वलप्राणावाय महागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः । उग्रादित्यगुरुर्गुरुर्गुरुर्गुणैः सद्भासि सौख्यास्पदम् शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवा नित्येष भेदस्तयोः ॥ अ. २५, श्लोक ५४ इसका भाव यह है कि सर्वार्ध मागधी भाषा से सुशोभित गंभीर प्राणावाय शास्त्र से संक्षिप्त संग्रह कर संस्कृत में उग्रादित्य गुरु ने इस ग्रंथ की रचना की है, उन दोनों में संस्कृत और मागधी भाषा का भेद है, अन्य कोई भेद नहीं है। इसलिए जैनाचार्यों ने किसी भी भाषा में आयुर्वेद शास्त्र की रचना की हो उसमें प्रामाणिकता की दृष्टि में समानता है, प्रमेय की दृष्टि में भी कोई अंतर नहीं है, अंतर केवल भाषा का है। भाषा के भेद से कृति की प्रामाणिकता में कोई अंतर नहीं पड़ता है। अतः यह आयुर्वेद शास्त्र द्वादशांग का ही एक अंग है, अंग-निर्गत होने से सर्वतः प्रमाण है। आयुर्वेद की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? आयुर्वेद शास्त्र की उत्पत्ति के विषय में भी जैनाचार्यों की स्वतंत्र कल्पना है, और उसका इतिहास भी परंपरागत है। आयुर्वेद शास्त्रकार जैनाचार्यों ने सबसे पहिले अपने ग्रंथ में भगवान् वृषभदेव को नमस्कार किया है, तदनंतर लिखते हैं कि तं तीर्थनाथमधिगम्य विनम्य मूर्ना । सत्प्रातिहार्यविभवादिपरीतमूर्तिम् । सप्रश्रयाः त्रिकरणोरुत्कृत प्रणामाः । प्रप्रच्छुरित्थमखिलं भरतेश्वरायाः ॥ श्री वृषभदेव के समवशरण में भरतेश्वर आदि महा पुरुषों ने पहुंचकर विनय के साथ वंदना करते हुए प्रश्न किया कि भगवन् ! पहिले भोगभूमि के समय में मानव कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगोपभोग सामग्रियों से सुख भोगते थे। वहां के सुख का अनुभव कर बाद स्वर्ग में पहुंच कर वहां भी खूब सुख भोगते थे, वहां से मनुष्य भव को पाकर पुण्य कर्म के बल से अपने इष्ट संपदा व स्थानों को प्राप्त करते थे। भगवन् ! अब तो कर्मभूमि की स्थिति आगई है, जो चरम शरीरी है, उपपाद जन्म के धारक है, उनको तो अब भी अपमरण नहीं है, परंतु ऐसे भी बहुत से मानब पैदा होते हैं जिनकी आयु दीर्घ नहीं होती, उनके शरीर में वात पित्त कफादि का उद्रेक होता रहता है, उनके द्वारा कभी उष्ण व शीत काल में मिथ्या आहार विहार का सेवन किया जाता है, इसलिए वे अनेक प्रकार के रोगोंसे पीडित होते हैं, और कभी कभी अपमृत्यु के भी भागी होते हैं । इसलिए हे स्वामिन् ! उनकी स्वास्थ्य रक्षा का उपाय अवश्य बतावें, आप ही शरणागतों के रक्षक हैं। इस प्रकार भरतेश्वर के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान् आदि प्रभु ने अपने दिव्यध्वनि के द्वारा पुरुष का लक्षण, शरीर शरीर का भेद, दोषोत्पत्ति, चिकित्सा और कालभेद का बिस्तार से वर्णन किया, एवं तदनंतर गणधरों ने भी उसकी विस्तार से व्याख्या की, उसीके आधार पर उत्तर काल के आचार्यों ने आयुर्वेद ग्रंथों की रचना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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