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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ विशेषता रही है। इसके अलावा अपने ग्रंथ में उन्होंने जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग व संकेत किया है, इसलिए ग्रंथ का अर्थ करते समय जैन सिद्धांत की प्रक्रिया को ठीक तरह से समझने की अत्यंत आवश्यकता है। उदाहरण के लिए समंतभद्र के ग्रंथ में रत्नत्रयौषध का उल्लेख आता है। इसका अर्थ सामान्य वैद्य यही कर सकता है कि वज्रादि तीन रत्नों के द्वारा निर्मित औषध या भस्म । परंतु वैसा नहीं है। जैन सिद्धांत में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को रत्नत्रय के नाम से कहा है। वे जिस प्रकार मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र रूपी त्रिदोषों का नाश करते हैं, उसी प्रकार रस, गंधक व पाषाण, इन धातुत्रयों के अमृतीकरण से सिद्ध होनेवाला रसायन वात, पित्त व कफरूपी त्रिदोषों को दूर करता है। अतः इस औषध का नाम रत्नत्रयौषध है।
____ इसी प्रकार औषध निर्माण के प्रमाण में भी जैन मत के संकेतानुसार ही संख्याओं का निर्देश आप ने किया है। उदाहरण के लिए रससिंदूर निर्माण करने के लिए कहा गया है कि
'सूतं केशरिगंधकं मृगनवासारहमम्' इस वाक्य का अर्थ जैन सिद्धांत के ज्ञाता ही ठीक तरह से कर सकता है। जैन तीर्थंकरों के भिन्न भिन्न चिन्ह हैं, उन चिन्हों के संकेत से उस चिन्हांकित तीर्थंकरों की संख्या का यहां ग्रहण किया है। ऊपर के वाक्य में सूतं केसरि अर्थात रस केसरी के प्रमाण में लो, अर्थात् केसरी नाम सिंह का है, सिंह चोबीसवें महावीर भगवान् का चिन्ह है। अर्थात केसरी से २४ संख्या लेनी चाहिए, गंधक मृग अर्थात हरिण जिस का चिन्ह है ऐसे सोलहवे शांतिनाथ का संकेत करता है, गंधक १६ भाग, इसी प्रकार अर्थ लेना चाहिये । समंतभद्र के ग्रंथों में इसी प्रकार के सांकेतिक अर्थ मिलेंगे, यह उनके ग्रंथ की एक विशेषता है ।
उनके हर कल्पों के प्रयोग में भी जैन प्रायोगिक शब्दों का दर्शन हमें मिल सकेगा। जैन वैद्यक ग्रन्थों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ को समझने के लिए जैनाचार्यों ने स्वतन्त्र वैद्यक कोषों की भी रचना की है। उपलब्ध कोषों में आचार्य अमृतनंदि का कोष महत्त्वपूर्ण है, परन्तु वह अपूर्ण है, शायद आयु का अवसान होने से यह कृति अधूरी रह गई हो। वनस्पतियों के नाम को भी अनेक स्थानों में हम जैन पारिभाषिक शब्दों में ही देखेंगे। इस प्रकार समंतभद्र आचार्य ने आयुर्वेद विज्ञान का भी विपुल रूप से उत्थान किया है, उनके द्वारा विरचित एक विषवैद्यक ग्रन्थ हमने बंगलोर के प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् विद्वान् श्री शशिकांत जैन के पास देखा था, जो सुन्दर ताडपत्र पर अंकित था । उसके अनेक प्रयोगों को क्रियात्मक रूप में प्रयोग कर श्री जैन ने सफलता प्राप्त की है, उनके कथन के अनुसार यह अद्भुत व अभूतपूर्व ग्रन्थ है। समंतभद्र के समग्र ग्रन्थों की प्राप्ति होने पर न मालूम किस प्रकार के सफल प्रयोग सामने आवेंगे? वह दिन समाज के लिए भाग्य का होगा ।
समंतभद्र के पूर्ववर्ती ग्रन्थकार परंपरा से वैद्यग्रन्थों की निर्मिति अति प्राचीन काल से चली आ रही है, इस में कोई संदेह नहीं है। इसलिए समंतभद्र ने अपने स्थान को सूचित करते हुए भल्लातकादि में जिन मुनि समंतभद्र
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