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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ यहां आचार्यजी ने समाधि या योग शब्द प्रयोग किया गया है। योग का अर्थ है कि जहां अन्तरंग जल्प को हटाकर उपयोग की आत्मा में एकाग्रता का संपादन किया जाता है। ऐसा योग ही परमात्मा का प्रकाशक है अर्थात इन्द्रिय प्रवृत्ति से हट कर निजस्वरूप में लीन होना व शुद्धरूप का साक्षात्कार करना ही समाधि है--
एष योगः सभासेन प्रदीपः परमात्मनः । आचार्यजी ने इस बातका विवेचन बडे पद्धति से किया है। हम जहाँ बात करते हैं, वह इन्द्रियों के माध्यम से । जो जानने वाला है वह दिखाई नहीं देता तथा जो रूप दिखाई देता है वह चेतनारहित होने से कुछ भी नहीं जान सकता है अतः मैं किससे बात करूँ ? यह समझना भी हमारी मूर्खता है कि हम किसी को आत्मतत्व समझाने का प्रयत्न करते है या किसी के द्वारा स्वयं समझने का प्रयास करते हैं। यह तो उन्मत्त पुरुष जैसा व्यवहार कहा गया है।
अतः जब तक इस जीव को शुद्ध चैतन्य रूप अपने निज-स्वरूप की प्राप्ती नहीं होती तब तक ही यह जीव मोहरूपी गाढ निद्रा में पड़ा हुआ सोता रहता है । परन्तु जब अज्ञानभावरूप निद्रा का नाश होता है तब शुद्धस्वरूप की प्राप्ति होती है।
समाधि की प्राप्ती समता ही समाधि का प्रमुख स्रोत है। आत्मज्ञानी विचार करता है कि शत्रु मित्र की कल्पना परिचित व्यक्ति में ही होती है । आत्मस्वरूप को न देखनेवाला यह अज्ञानी जीव न मेरा शत्रु है, न मित्र है, तथा प्रबुद्ध प्राणी न मेरा शत्रु है न मित्र । इसलिए इसका विचार कर 'सो-हं'-अनन्तज्ञान रूप परमात्मा ही मैं हूँ, इस संस्कार की दृढता से ही चैतन्य की स्थिरता प्राप्त होती है। स्थिरता से समत्व प्राप्त होता है । आत्मा की शरीर से भिन्नता की अनुभूति निर्वाण पद की आधारशिला है ।
मुक्ति का मार्ग आचार्यजी ने मुक्ति प्राप्त करने के लिए जो सुगम उपाय बताए हैं वे वास्तविक हमें स्वच्छ दृष्टि प्रदान करने में समर्थ हैं । मनरूपी जलाशय में अनेक राग-द्वेषादि तरंग उठते हैं, जिस वस्तु का स्वरूप स्वच्छ नहीं दिखाई देता है, सविकल्प वृत्ति के द्वारा आत्मा का दर्शन नहीं होता । वास्तव में निर्विकल्प अंतःतत्त्व ही आत्मतत्त्व है।
अनुभूति में मान-अपमान के विकल्प वहां नहीं होते, अतः इन्द्रियों के संयोग से निर्माण होनेवाले विकल्प ज्ञानी को छोडना चाहिए।
भेद विज्ञान आवश्यक शरीर में आत्मदृष्टि रखनेवाले मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा को यह विश्व विश्वास करने लायक लगता है। वह उसे ही सुन्दर मानता है। परन्तु आत्मदृष्टि सम्यग्दृष्टि को यह जगत स्त्रीपुरुषादि पर पदार्थों में विश्वास उत्पन्न नहीं होता, इसलिए उसकी आसक्ति उन में नहीं होती।
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