Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 547
________________ ३४२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ आचार करते समय अपनी व्रतनिष्ठा स्थिर रहे, उसमें किसी तरह की शिथिलता न आवे यह उदात्त हेतु रक्खा गया है । व्यवसाय करते समय जिस तरह पाई पाई के हानी लाभ का खयाल रक्खा जाता है, ठीक उसी तरह व्यवहार आचार करते समय उसमें छोटे मोटे दोष न लग जावे यही अतिचार त्याग का हेतु है । यदि प्रमाद वश कोई दोष लग भी गया तो प्रतिक्रमणादि द्वारा मिटाने का उपाय भी कहा है । अन्यत्र मद्य, मांस, मधु और पंच उदुंबर फलों का त्याग करने से अष्ट मूल गुण धारी श्रावक कहा गया है । इस ग्रंथ में मूल गुणधारी श्रावक बनने के लिए ' मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् ' पांच अणुव्रत पालन के साथ मद्य, मांस, मधुका त्याग आवश्यक कहा है। दोनों प्रकार की वर्णन शैलीका मूलभूत उद्देश हिंसादि पंच पापों से अलिप्त रहने ही का है । इसी तरह शिक्षाव्रतों में अतिथि संविभाग व्रत के स्थान पर वैयावृत्य का उल्लेख किया है । प्राथमिक श्रावकों में अर्हद्भक्ति निर्माण हो, व्रतों के परिपालन की रुचि बढे एतदर्थ अर्हद्भक्ति के फलका तथा आठ अंग, पांच व्रत तथा पांच पापोंमें प्रसिद्ध प्रथमानुयोगोंके समेत चरित्र नाथकों का उल्लेख किया है । संसार की कोई भी अवस्था दुःखमुक्त नहीं है। उससे छुटकारा पानेके लिए रागद्वेष का त्याग करना पडता है । रागद्वेष का त्याग करना यही तो व्रतिक अवस्था है । अतएव तीसरे अध्याय में व्रतों का वर्णन किया है । मरण समय में होनेवाला दुःख सबसे बड़ा दुःख है । उस समय रागद्वेष से अलग रहकर व्रतादिकों में परिणाम स्थिर रखना अत्यंत कठिन हो जाता है । शारीरिक ममत्व का अनादि संस्कार भेदविज्ञान पूर्वक व्रत पालना कारण दूर हो जाता है । मरण समय के लेश्या पर अगले जन्म की अवस्था अवलंबित है । अतएव चतुर्थ परिच्छेद में आचार्यश्री ने सल्लेखना का वर्णन किया है । सल्लेखना का अर्थ है कषायत्याग के साथ साथ शरीर विधिपूर्वक छुटे । यदि कषायों का, रागद्वेषादिकों का त्याग न हुआ तो उसे दुर्मरणही कहा है । वह सल्लेखना स्वीकारने का योग्य काल, उसकी त्यागका क्रम तथा उसका फल इन विषयों का वर्णन विशेषतासे लिए हुए है । जीवित अवस्था का यह अन्तिम सार होने से उसमें कोई सूक्ष्मसा दोष भी न रह जावे, अतः सल्लेखना के अतिचारों को भी दिखाया है । सल्लेखना का फल मोक्षप्राप्ति है अतः अखंड अविनाशी सुखस्वरूप मोक्ष का भी वर्णन किया है। धर्म का और सल्लेखना का आनुषङ्गिक फल स्वर्गप्राप्ति है । अंतके पांचवे अध्यायमें श्रावक के ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन बताया है । संयम में क्रमश: वृद्धि बरती जाती है। ऐसे संयमी श्रावक को चेलोपसृष्ट मुनि की श्रेणी प्राप्त हो जाती है । श्रावक का अंतिम स्थान ग्यारहवीं प्रतिमा - उद्दिष्ट त्याग है । उनका वर्णन करते हुए लिखा है किगृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य | भैक्ष्याशनस्तपस्यन् उत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ इसी तरह निवृत्ति मार्गपर आरोहण करते समय सम्यग्दृष्टि श्रावक की ज्ञाता स्वरूप अंतरंग भूमिका बताई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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