Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 539
________________ ३३४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ साधारण रूप से 'प्रतिपाद्य विषय का भाव सो तत्त्व' 'तस्य भावः तत्वम्'। इस निरुक्ति के अनुसार किसी भी प्रतिपाद्य विषय का भाव तत्त्व कहला सकता है। इस दृष्टि से जगत की कोई भी चीज, कोई भी बात तत्त्व कहला सकती है और तब तो अनंतों प्रतिपाद्य विषय होंगे, अनंतों तत्त्व बन सकेंगे । किन्तु जैन दर्शन में मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत जो बातें हैं केवल उन्हीं को 'तत्त्व' के अन्तर्गत स्वीकार किया है। मोक्ष प्राप्ति के दृष्टि से जिन बातों का सम्यग्ज्ञान परमावश्यक है ऐसी बातें सात हैं जो 'सप्त तत्त्व' नाम से सुविख्यात हैं। श्रीमदुमास्वामी का 'तत्त्वार्थसूत्र' प्रसिद्ध ग्रंथ इन्हीं सप्त तत्त्वों को सांगोपांग वर्णन करनेवाला है एवं अन्यान्य अनेकों जैनाचार्यों के ग्रंथ सप्त तत्त्वों के प्रतिपादनस्वरूप हैं। उन सप्त तत्त्वों के नाम हैं-(१) जीव, (२) अजीव, (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) (३) आस्रव, (४) बंध, (५) संवर, (६) निर्जरा, (७) मोक्ष । यह सप्त तत्त्व-परिपाटी जैन जगत में सुपरिचित है। किन्तु 'तत्त्वसार' ग्रंथ में तत्त्व विभाजन अद्भुत नवीन किया है। आचार्य देव ने तत्त्वों को दो विभागों में विभाजित किया है। (१) स्व-गत तत्त्व और (२) पर-गत तत्त्व । यह स्व-गत तत्त्व में निजआत्मा लिया गया है। अब परगत तत्त्व के विषय में तर्क हो सकता है कि निज आत्मा के अतिरिक्त शेष समस्त आत्माएं या समस्त परद्रव्य आते होंगे। किन्तु यहाँ भी आचार्यवर का विशेष दृष्टिकोण है । परगत तत्त्व में समस्त परमात्माएँ या परद्रव्य न लेकर पूर्ण शुद्धात्म प्राप्ति की दृष्टि से प्रयोजनभूत-आराध्यस्वरूप जो परम पद में स्थित पंचपरमेष्ठी अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु उनका ग्रहण किया है। सारांश स्वगत तत्त्व में निजात्मा और पर-गत तत्त्व में पंचपरमेष्ठी ऐसा तत्त्वों का विभाजन यह ग्रंथ की दूसरी विशेषता है । स्व-गत तत्त्व और पर-गत तत्त्व इन दो प्रकार के तत्त्वों में से इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय विशेषता स्व-गत तत्त्व है, पर-गत तत्त्व नहीं। ग्रंथ में कुल चौहत्तर गाथाएँ है जिनमें मात्र एक ही गाथा पर-गत तत्त्व के अर्थात् पंचपरमेष्ठी के संबंध में आयी है। अतः स्व-गत तत्त्व का विवेचन अर्थात निज आत्म तत्त्व का सारभूत विवचन है यह इसकी तीसरी विशेषता है । हेयोपादेय का विचार श्रद्धान व चारित्र इन दो दृष्टियों से करना योग्य है। अशुभ शुभ (अर्थात् पाप व पुण्य ) ये दोनों शुद्धात्म प्राप्ति के लिए श्रद्धान की अपेक्षा हेय है, और शुद्ध (शुभाशुभरहित, पाप पुण्यरहित आत्मदशा) सर्वथा उपादेय है। किन्तु पुण्य या शुभ ? चारित्र की अपेक्षा शुभाचार या पुण्यक्रिया न सर्वथा हेय है और न सर्वथा उपादेय है, प्रत्युत कथंचित् हेय है और कथंचित् उपादेय है। शुद्धात्मस्वरूप परमणता जिस काल में नहीं है उस काल में अशुभ से या पाप से बचने के लिए शुभ या पुण्य उपादेय है । षष्ठ गुणस्थानवर्ती मुनिराज तक की शुभ या पुण्य का अवलंब चारित्र की अपेक्षा बना रहता है। ग्रंथकार ने पंचपरमेष्ठी की भक्ति को बहु पुण्य का कारण और परम्परा से मोक्ष प्राप्ति का भी कारण बताया है। अतः पुण्य का संक्षेप में श्रेष्ठ जनयोग्य संतुलित और निर्दोष विवेचन यह इस ग्रंथ की चौथी विशेषता है । - जो पंचपरमेष्ठी की भक्ति से भली भाँति परिचित हैं ऐसे जनों को निर्ग्रन्थ पद धारण करना परमावश्यक है। मुख्यतया निज-तत्त्व की प्राप्ति के लिए निर्विकल्प निजतत्त्व का सुपरिचय प्राप्त कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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