Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 544
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३३९ आप्त- सच्चा हितोपदेशक, यह मधुर ध्वनि निकालनेवाले मृदंग की तरह निरपेक्ष वृत्तिवाला होता है । दीपस्तंभ की तरह वचन सन्मार्ग को दिखानेवाले होते हैं। उन्हीं के वचनों को आगम या शास्त्र कहा जाता है । ऐसे आप्त और आगम को बनानेवाले सद्गुरुहि होते हैं । उन्हें यहां तपोभूत् कहा है । वे पंचेंद्रियों के विषयों से पराङ्मुख होकर ध्यान और तपमें लीन होते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं । सम्यग्दर्शन रूप धर्म की धारणा तभी होती है जब कि ऐसे आप्त, आगम और गुरुओं पर निर्मल श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। श्रद्धा के ये स्थान आदर्श स्वरूप हुआ करते हैं । उसी आदर्श में अपने अनन्त गणात्मक आत्मस्वरूपको प्रतिबिम्ब दिखाई देता है । अतएव उनके विषय में अन्यथा श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए । उनकी वास्तविकता को पहचान कर तदनुकूल श्रद्धा रखनी चाहिए। श्रद्धा में अपने मोहभाव और प्रमाद के कारण कोई दोष नहीं लगने देना चाहिए । इसलिए निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन अंगों का पूर्णतया पालन करना चाहिए । उसमें कहीं भी न्यूनता रह जावेगी तो न्यून अक्षरवाले मंत्र की तरह दर्शन इष्ट फलदायक नहीं होता । गर्व - अहंकार आठ विषयों के आधार से उत्पन्न होता है और वह सम्यग्दर्शन को नष्ट कर देता है । अतः ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, तप, ऋद्धि, शक्ति और शरीरसौष्ठव इनके आधार से अपने को बडा मानकर दूसरों को तुच्छ न समझे । धार्मिक व्यक्ति ही धर्म का आधार हुआ करता है । कहा भी है कि ' न धर्मो धार्मिकैर्विना ' धार्मिक व्यक्ति को छोड धर्म नाम की कोई अलग से स्वतंत्र वस्तु नहीं है । इसीलिए वह सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा अन्य साधर्मी का अपमान नहीं करता । इन आठ प्रकार के अभिमानों का त्याग क्यों होना चाहिए इसका वर्णन निम्न श्लोक में किया है । यदि पाप निरोधोऽन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् । अथ पापास्स्रवोऽस्त्यन्यत्सम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ पाप कर्म के आश्रव को रोकनेवाली वीतरागता और विज्ञानता की संपत्ति होने पर ऐहिक संपत्ति से लाभ ही क्या है ? और अगर पाप कर्म के आश्रव का ही कारण है तो भी उस ऐहिक संपत्ति से लाभ क्या ? इस तरह इन ऐहिक धनादिक का अभिमान वृथा हि है । इसलिए सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा इनको प्रयत्न से छोड़े हुए हैं । सम्यग्दृष्टि की अलौकिक महिमा का वर्णन करते समय इहलोक तथा परलोक में किस तरह की सुख संपदा उसके चरणों पर झुकती है इसका प्रमाणभूत वर्णन इस अध्याय का समारोप करते हुए किया गया है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि की महत्ता सम्यग्दर्शन आत्मा का गुण है । वह उसकी स्वाभाविक अवस्था है और वह चारों ही गतियों में देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक पर्याय में प्रगट हो सकती है । अत्यंत हीन - पापी माना जानेवाला चांडाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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