Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 542
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्री ब्र. विद्युल्लताबेन शहा, एम्. ए., बी. एड्. श्राविकासंस्थानगर, सोलापूर २ जिन जिन महात्माओं ने आदर्श श्रावक बनने का संकल्प किया, उन सभी जीवों ने अपने इस संकल्प की सिद्धि के लिए इस छोटे से ग्रन्थ का अभ्यास कर उसके प्रत्येक शब्द का भाव आत्मसात् किया । आदर्श श्रावक के शुद्ध निर्मल जीवन का सच्चा प्रतिबिंब ही यह 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार ' ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम है 'उपासकाध्ययन'। श्रावकरत्नत्रय धर्म का उपासक होता है। उसे इस ग्रन्थ का अभ्यास आवश्यक है । जिनवाणी जिन द्वादश अंगों में गूंथी गई उन बारह अंगों में इस उपासकाध्ययन का स्थान है । वही उसका उगमस्थान है। चरणानुयोग के अति प्राचीन ग्रन्थ की रचना भावी तीर्थंकर, परमऋद्धिधारी स्याद्वादकेसरी, महादिगम्बर साधु श्री समन्तभद्र आचार्य ने सिर्फ डेढसौ श्लोकों में की है । इस ग्रन्थ के उजाले में श्रावकों की आचारशुद्धि खिल उठती है, परिणामों का सुगंध चारों ओर महक उठता है और सहज गत्या मुनिमार्ग प्राप्त कर सकते हैं। साध्य स्वरूप मुनिधर्म की प्राप्ति का . श्रावक धर्म प्रधान साधन है । और उसीका इस ग्रन्थ में उल्लेख है। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' इस सालंकृत नामही में इस ग्रन्थ का वर्ण्य विषय समा गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र ये ही तीन सच्चे अलंकार जीवन को सजानेवाले हैं। आचार्य श्री ने इन्हीं तीन रत्नों को एक करण्डे में रख धरोहर के रूप में भाग्यवन्तों के हाथों सौंप दिया है। महातपस्वी साधु का दिया हुआ यह प्रासुक दान प्रसन्न अन्तःकरण से श्रावक ग्रहण करें। वर्ण्य विषय रत्नकरण्ड श्रावकाचार यह एक सूत्रमय ग्रन्थ है । “ सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः" इस सूत्र में शेष डेढसौ श्लोक-पुष्पों को गूंथकर भाविकों की इच्छाओं को पुलकित करनेवाला सुन्दर हार बनाया गया है । 'धर्म' इस दो वर्णवाले शब्द में ही दुःखों से छुडाकर समीचीन शाश्वत सुखस्थान में रखनेवाला, कर्मकलंक को पूर्णतया हटानेवाला यदि कोई धर्म है तो वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक आत्मस्वरूप रत्नत्रय धर्म ही है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र ये तीन भिन्न भिन्न हैं । आचार्य श्रीने 'धर्मान् ' इस प्रकार बहुवचनान्त प्रयोग न कर 'धर्मम् ' इस प्रकार एक वचनान्त शब्द का प्रयोग क्यों किया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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