Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 538
________________ तत्त्वसार ३३३ सारभूत तत्त्व जो अविकल्प स्व-गत तत्त्व ही है और वही मोक्ष का साक्षात् कारण है । उसकी प्राप्ति के कौनसी महत्त्व की शर्त को पूरा करना परमावश्यक है इस बात को स्पष्ट किया है । दसवी व ग्यारहवीं गाथाओं में उस शर्त का लक्षणादि बताते हुये स्पष्टीकरण किया गया है । गाथा बारहवीं और उसके आगे की गाथा तेरहवीं ये दो गाथाएँ बडी ही मर्मभरी हैं। कोरे नियतिवाद से काम नहीं चलता । बाह्य चारित्र द्रव्यचारित्र की क्रियाकलाप की अपनी विशेषता है। जो जीव व्यवहार चारित्र को तो अंगीकार करना नहीं चाहते और शुद्धोपयोग की तो प्राप्ति नहीं वे बुरी हालत में फसकर अपना अकल्याण ही कर लेते हैं। मोह कब कम होगा यह बताते हुये कहा है कि जब काललब्ध्यादि निकट होंगे तब मोहादि की मात्रा कम हो जायगी । फिर भी अगली गाथा में कहा है कि पंगु अपाहिज आदमी का जैसे मेरू पर्वत के शिखरपर चढने की इच्छा कर बैठना व्यर्थ है वैसे ही बिना पुरुषार्थ के, बिना ध्यानादि सामायिक व्रतादि के कर्मक्षयरूप आत्मसिद्धि असंभव है । तात्पर्य बिना समीचीन पुरुषार्थ के काललब्धि आदिका कोई अर्थ नहीं है । अतः मुक्त होने के लिए पुरुषार्थ की ही प्रमुखता है, अनिवार्य आवश्यकता है । इस पंचम काल में ध्यान नहीं है ऐसा मिथ्या राग अलापने वालों को जोरदार उत्तर दिया है। ये गाथाएँ विख्यात भी हैं जिनमें वर्तमान में ध्यान का सद्भाव व तदर्थ प्रेरणा है । यहाँ से आगे अर्थात् गाथा १७ से गाथा ६५ तक ध्यान करने की विधि, ध्यान की गूढ प्रक्रियाएँ, ध्यानार्थ आवश्यक सामग्री, ध्यान के साधक-बाधक कारणादि का विविध प्रकारों से, दृष्टांतों आदि द्वारा वर्णन किया है । यहाँ संक्षेप से इतनाही कहा जा सकेगा कि यह वर्णन अत्यंत महत्त्वपूर्ण व गम्भीर है । भव्यों को प्रत्यक्ष सूक्ष्म स्वाध्याय से उससे महान् लाभ उठाना चाहिए । इसमें कई गाथाएँ गूढ हैं जिन्हें इस ग्रन्थ में प्रकट किया गया है । और परमानन्द प्राप्ति कब होती है यह बताया । गाथा ६६ व ६७ में जीवन्मुक्त परमात्मा व पूर्ण मुक्त परमात्मा का वर्णन है । गाथा ६८ से ७१ तक सिद्ध पद के बारे विशेष वर्णन है । गाथा ७२ वी में मंगलाचरण के समान अंत में पुनश्च सिद्धवन्दना की गयी है । ७३ वीं गाथा में स्व-गत, पर-गत तत्त्व की महत्ता को प्रकट कर वे चिरकाल जयवंत रहे यह मंगल भाव अभिव्यक्त किया है । ७४वीं अंतिम गाथा में मंगलाशीर्वाद अभिव्यंजित किया है कि जो जीव इस तत्त्वसार की भावना करता है वह सम्यग्दृष्टि महात्मा शाश्वत सुख को प्राप्त होता है । ग्रंथकार का इस ग्रंथ में प्रधानोद्देश था अविकल्प स्व-गत तत्त्व की प्राप्ति ही तीन लोक में तीन काल में सारभूत होने से तत्प्राप्ति का उपाय जो गूढ ध्यानमर्म उसे बताना और तदर्थ निग्रंथ पदधारण की प्रेरणा करना । ग्रंथ के स्वाध्याय से स्पष्ट पता चल जाता है कि ग्रंथकार ने अपने उद्देशपूर्ति के लिए पर्याप्त सम्यक् प्रयत्न किया है और उसमें बहुत अच्छी सफलता भी संपादन की है। ग्रंथ की विशेषताएं इस ग्रंथ में मात्र तत्त्व ही नहीं प्रत्युत तत्त्वों का सार बताया है और यही मंगलाचरण गाथागत नाम का स्वीकार करें (सुतत्त्वसार) तो कहना पडेगा कि इस ग्रंथ में केवल साधारण रूपसे ही तत्त्वों का सार नहीं बताया है अपितु सुष्ठु रूपेण तत्त्वों का सार बताया है । यह इस ग्रंथ की पहली विशेषता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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