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जैन कानून ६. श्री आदिनाथ पुराण-भगवत् जिनसेनाचार्य ने इ. स. ९०० शताब्दि में इस पुराण को लिखा है। वर्तमान काल में ये ग्रंथ उपलब्ध हैं, परन्तु इनमें से किसी में भी संपूर्ण जैन कानून का वर्णन नहीं मिलता । फिर भी कानून की कुछ आवश्यक बातों का इन ग्रंथों से पता चलता है ।
१. ब्रिटिश अमल के काल में जैन लॉ की अवस्था भारत में बिटिश शासन होने के बाद न्यायालय (civil courts) स्थापन हुये । विरासत का कायदा (Succession Rights) विभक्तपना ( Partition)
दत्तक विधान (Adoption) और विधवा स्त्री का पति के जायदाद पर अधिकार (Widows' rights over her Husband's estate) वगैरह ।
इन कानुन के बारे में जब जैन लोगों के मुकद्दमात कोर्ट में पेश होते थे तो शुरू में जैनीयों ने अपने जैन लॉ को न्यायालयों में पेश करने का विरोध किया। इसका विपरीत परिणाम यह हुआ कि न्याय करनेवाले (Judges) न्यायाधीशों ने यह निर्णय कर लिया कि जैनीयों का कोई स्वतंत्र जैन कानून नहीं है। परंतु न्यायालयों का इसमें कुछ अपराध नहीं। अगर जैन समाज जागृत रह कर अपना कानून अदालत में पेश करते तो उसकी मान्यता भी हो सकती थी। इस विषय में हिंदुओं ने बुद्धिमानी से काम लिया। और हिंदु लॉ के बारे में जो कुछ हिंदु शास्त्र थे अदालत में पेश किये और उनके आधारपर न्यायालयों में फैसले भी होते रहे ।
उसी तौरपर मुस्लिम मौलवी और काजी मुस्लीम लॉ को ( Mohammedan law) कोर्ट में पेश करते गये और विरासत वगैरे मामलत में मुस्लिम लॉ के अनुसार फैसले होते गये ।
२. जैन लॉ का संकलन श्री जुगमंदरलालजी जैन बॅरिस्टर ने (जो इंदोर हायकोर्ट के चीफ जज्ज भी थे) प्रथम बार इस दुरवस्था को देख कर जैन लॉ नाम का एक ग्रंथ तय्यार किया । जिसको १९१६ इ. में प्रकाशित कराया। लेकिन श्री जुगमन्दरलालजी को पर्याप्त अवकाश न मिलने से यह ग्रंथ भी अपूर्ण रूप रहा ।
इसके पश्चात् स १९२१ इ. में जब डॉ. गौर का हिंदु कोड (Hindu code) प्रकाशित हुआ उसमें जैनीयों को धर्म-विमुख हिंदु (Hindu) लिखा ।
इस हिंदु कोड के कारण जैन समाज में हलचल मची । इसका विरोध करने के लिये 'जैन लॉ कमिटी' कायम हुई लेकिन दूर देशांतर से सदस्य वक्तपर एकत्रित न हो सके इसलिये यह जैन लॉ कमिटी भी अपने उद्देशों को पुरा न कर सकी।
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