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आईत्-धर्म एवं श्रमण-संस्कृति
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णमो उवज्झायाणं - ' उप ' उपसर्ग समीप अर्थ का द्योतक है और ' इङ्' धातु अध्ययनार्थ है । इङ् धातु सदा ‘ अधि ' उपसर्ग के साथ आती है । ' उप + अधि + इ ' ऐसी स्थिति में ' 'घञ् ' प्रत्यय हुआ और वृद्धि, दीर्घ, यण और आय् होने पर ' उपाध्याय ' बना । ' पोवः ' से पकार को बकार, सूत्र 'ह्रस्वः संयोगे ' से वकार को हस्व होने पर ' उवध्याय ' बना ' ध्यस्यज्झ : ' सूत्र से ' ध्य' को 'ज्झः ' आदेश होने पर 6 उवज्झाय ' बना और चतुर्थ्यन्त होने से उवज्झायाणं' बोलने में आया । उपाध्याय मुनि संघस्थ अन्य मुनियों को अध्यापन कराते हैं ।
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णमो लोए सव्वसाहूणं - ' साध्नोति स्वार्थमनपेक्ष्य परकार्यमिति साधुः ' अथवा ' साध्नोति निजस्य आत्मनः परेषां भव्यजन्तूनां मुक्तिरूपं कार्यमिति साधुः । ' जो स्वार्थ की अपेक्षा न करके पर कार्य को सिद्ध करते हैं या निज आत्मा और अन्य भव्यजीवों के मुक्तिरूप कार्य को सिद्ध करते हैं वे साधु होते हैं । संस्कृत में सर्व शब्द समस्त अर्थ का बोधक होता है । प्राकृत में ' सर्वत्र लवरामचन्द्रे शेषाणां द्वित्वचानादौ ' सूत्र से रकार का लोप और वकार को द्वित्व होने से ' सव्व' बन जाता है । सिद्धि अर्थ में ' साध ' धातु से 'उण् ' प्रत्यय होने पर 'साधु ' रूप बनता है । साधु शब्द से लोक में अनेकों अर्थ ग्रहण किये जाने लगे हैं परन्तु वास्तव में यह शब्द श्रमण मुनियों के लिये ही है । 'रव द्यथ ध मां ह: ' सूत्र से धकार को हकार हो जाता है । सामान्यत: इस पद में आचार्य और उपाध्यायों का ग्रहण भी हो जाता है परन्तु उन दोनों पदों को विशेषापेक्षया पृथक् कहा गया है । स्नातक, निर्ग्रन्थ, पुलाक, बकुश और कुशील ये सभी भेदसाधुओं के हैं और इन सब का ग्रहण करने के लिये प्रकृत मूल मंत्र में ' सव्व ' पद का ग्रहण किया गया है । उक्त प्रकार मूलमंत्र का संक्षिप्त विवेचन है ।
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उक्त मंत्र आर्हत्-धर्म के दिग्दर्शन में मूलभूत है । इसके विशेष - विस्तृत अध्ययन से आर्हत्-धर्म सिद्धान्तों पर पूर्ण प्रकाश पड़ सकता है आत्मा - संबंधी समस्त गुणों, कर्तव्यों और चरमावस्था के दिग्दर्शन कराने में समर्थ होने से उक्त मंत्र आत्मेतर अन्य द्रव्यों के प्रकाश में भी समर्थ है । उपाध्याय परमेष्ठी के द्वार से जहां तत्त्वों की शिक्षा का बोध होता है, वहां सभी तत्त्वों का विवेचन भी गर्भित हो जाता है । एतावता मूलमंत्र आर्हत् धर्म का प्रतीक है, इसका मनन, चिन्तन परमपद को दिलानेवाला है और इसी विचारधारा से प्रवाहित श्रमण-संस्कृति है । और मूलमंत्र की भाँति वह भी अनादि निधन है ।
' श्रमण ' शब्द के विषय में लिखा है कि- ' श्राम्यतीति श्रमणः तपस्यन्तीत्यर्थः । ' - दशवैकालिकसूत्र, अर्थात् जो श्रम करे वह श्रमण कहलाता है और श्रम का भाव है तपस्या करना । भारत में श्रमण परम्परा प्राचीनतम -- वस्तुस्वरूप के साथ से चली आ रही है । इस परम्परा के दर्शन अनेकों रूपों से किये जा सकते हैं। यथा
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णामेण जहा समणो ठावणिए तह य दव्वभावेण । णिक्खवो वह तहा चदुव्विहो होइ णायव्वो ||
- आचार्य कुन्दकुन्द मूलाचार १०।११४
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